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________________ १०८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [अष्टमोऽधिकारः, भावना भाई हो जाता है और भाई होकर शत्रु हो जाता है । इस प्रकार इस संसारमें सभी प्राणी माता, पिता, पुत्र, शत्रु इत्यादि हो चुके हैं। अतः एकसे राग और दूसरेसे द्वेष करना व्यर्थ है। अथास्रवभावनामधिकृत्याह-- आस्रवभावनाको कहते हैं: मिथ्यादृष्टिरविरतः प्रमादवान यः कषायदण्डरुचिः।। तस्य तथास्रवकर्मणि यतेत तन्निग्रहे तस्मात् ॥ १५७॥ टीका-मिथ्यादर्शनादयः कर्मण आश्रवाः । तत्त्वार्थाश्रद्धानलक्षणो मिथ्यादृष्टिः ।, मिथ्यादर्शनोदयाच्च कर्मबन्धः । अविरतः सम्यग्दृष्टिरपि यो न विरतः कुतश्चिदपि प्राणाति: पातदोषादसावपि कर्मास्रवेषु वर्तते । सम्यग्दृष्टिविरतोऽपि यः सोऽपि कमाश्रवत्यादत्ते। प्रमादश्च निद्राविषयकषायविकटविकथाख्यः पञ्चधा । अनेन प्रमादेन युक्तः कर्म बध्नाति । कषायप्रमादो गरीयानिति भेदेनोपादानम्। दण्डस्त्रिधा मनोवाक्कायाख्यः । मनसातरौद्राध्यवसायः कर्मास्रवति । वाचाऽपि हिंसकपरुषादितया कर्म बध्नाति । कायेनापि धावनवल्गनाप्लवनादिरूपेण कर्मादीयते। दण्डयन्तीति दण्डाः। मन एव दण्डयत्यात्मानम् । एवमितरावपि । तस्यास्रवहेतोः कर्मणि क्रियायां यतेत यत्नं कुर्वीत । तेषामास्रवाणां निग्रहो निरासस्तस्माद्यत्नादिति । विवृतान्यास्रवद्वाराणि यथा न संभवन्ति तथा यतेत ॥ १५७ ॥ अर्थ-जो प्राणी मिथ्यादृष्टि अविरत और प्रमादी है तथा कषाय और योगमें रुचि रखता है, उसके कर्मोंका आस्रव होता है । अतः उनके रोकनेका प्रयत्न करना चाहिए। भावार्थ-मिथ्यादर्शन वगैरह कर्मोंके आस्रवमें कारण हैं। मिथ्यादृष्टि जीवके मिथ्यादर्शनका उदय होता है, अतः उसके कर्मबन्ध होता है । सम्यग्दृष्टि होकर भी जो हिंसा वगैरह पापोंसे विरत नहीं होता है उसके भो कर्मोंका आस्रव होता है। सम्यग्दृष्टि और विरत होकर भी जो प्रमादी है, उसके भी काँका आस्रव होता है। प्रमादके पाँच भेद हैं:-निद्रा, विषय, कषाय, विकट और विकथा । जो इन प्रमादोंसे युक्त होता है, उसके कर्मबन्ध होता है । यद्यपि प्रमादमें ही कषायका अन्तर्भाव होजाता है तथापि कषाय बलवान् है, अतः उसका अलगसे ग्रहण किया है। - दण्डके तीन भेद हैं :-मन, वचन और काय । आर्त और रौद्र परिणामवाला जीव मनसे कर्मबन्ध करता है, हिंसक और कठोर वाणी बोलकर वचनसे कर्मबन्ध करता है और दौड़, उछल-कूद वगैरह करके कायसे कर्मबन्ध करता है । जो दण्ड देते हैं उन्हें दण्ड कहते हैं । मन आत्माको दण्ड देता है, अतः वह मनोदण्ड कहा जाता है । इसी प्रकार वचन और काय-दण्डमें भी समझ लेना चाहिए । ये सब आस्रवके द्वार कहे जाते है; क्योंकि इनके द्वारा कर्म आते हैं । अत: आस्रवके द्वार खुले न रहें ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। संवरभावनामधिकृत्याहसंवरभावनाको कहते है:
SR No.022105
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1951
Total Pages242
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size25 MB
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