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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ८७ परन्तु जिस देशके आटेमें थोडे समय में हो जीव पड़ते हों उस देश का आटा न लेना। यदि ऐसा करने से संयम निर्वाह न हो याने बहुत दूर जाना हो और मार्ग में श्रावक के घर वाले गांव न आते हों तो जिसके घरसे आटा लेना पड़े वहांसे उसी दिनका पीसा हुवा ले। यदि ऐसा करते हुये भी निर्वाह न हो तो दो दिन का लेवे, ऐसा करते हुये भी निर्वाह न हो तो तीन दिनका एवं चार दिनका भी पीसा हुआ आटा लेवें। परन्तु सबको जुदा २ रखकर जिस दिन उपयोगमें लेना हो उस दिन नीचे लिखे मुजव विधि से उपयोग में ले। नीचे एक वस्त्र बिछाकर उसपर पात्र कम्बल करके उसपर आटेको बिछा दे, उसमें यदि कदाचित जीव उत्पन्न हुये हों तो वे कम्बल में आ जायगे उन्हें लेकर एक वस्त्रमें रख एवं नव दफा देख देख कर तलास करने से यदि जीव न मालूम दे तब उसे उपयोगमें ले। कदाचित् जीवकी संभावना हो तो फिर भी नव वार गवेषणा करे। तथापि यदि जीवका सम्भव मालूम हो तो तीसरी दफा नव वार गवे. षण करे, इस तरह जबतक जीवके रहनेका सम्भव हो तवतक गवेषणा करके जब बिलकुल निर्जीव मालूम हो तब आहार करे। जो जीव उद्ध तकिये हुये हों उन्हें जहांपर उनकी यतना हो सके उन्हें पीड़ा न पहुंचे ऐसे स्थान पर रखना उचित है। ___“पक्कान आश्रयी काल नियम" वासासु पनर दिवस, सीओ ण्ड कालेसु मास दिणवीसं । ओगाहि मं जइण, कप्पइ आरम्भ पढम दिणा ॥१॥ "सव जातिके पक्वान वर्षाऋतु में बनानेसे पन्द्रह रोज तक, शीतमें एक महीना और उष्ण काल में वीस दिन तक कल्पते हैं ऐसा व्यवहार है।" यह गाथा किस ग्रन्थकी है इस बातका निश्चय न होनेसे कितनेक आचार्य कहते हैं कि, जबतक वर्ण, रस, गंध स्पर्श, न बदले तबतक कलपनीय है, बाकी दिन वगैरह का कुछ नियम नहीं। ___ "दहि, दूध और छासका विनाश काल" जइ मुग्ग मासप्पभई, विदलं कच्चमि गोरसे पडई । ___ता तस्स जीवुप्पत्ति, भणंति भगति दहिए बिदुदिणूवारं ॥ ३ ॥ यदि कच्चे गोरस गरम किये विना ( दूध, दहि, छास )में मूग, उडद, चोला, मटर, वाल, वगैरह द्विदल पडे तो उसमें तत्काल ही त्रस जीवकी उत्पत्ति हो जाती है, और दहि में तो दो दिनके उपरान्त होने पर त्रस जीवकी उत्पत्ति हो जाती है।" "दुध्यहद्वितयातीतमिति हैमवचनात्" दहि दो दिनतक कल्पता है तीसरे दिन न कल्पे इसलिये उसे तीसरे दिन वर्जनीय समझना। "द्विदल" जिस धान्य को पोलने से उसमें तेल न निकले और सरीखी दो पड़ हो जायें उसे द्विदल कहते है। दो पड़े होते हों परन्तु जिसमें से तेल निकलता हो वह द्विदल नहीं समझा जाता।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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