SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ श्राद्धविधि प्रकरण । वह समान राज्य सिंहासन पर बैठ गया । रामचन्द्र के समय जैसे चक्रांक विद्याधर का पुत्र साहसगति सुग्रीव बना था वैसे ही इस वक्त चन्द्रशेखर शुकराज रूप बना । चन्द्रशेखर को सब लोग शुकराज ही समझते एक दिन रात्री के समय ऐसा पुकार कर उठा अरे सुभटो ! जल्दी दौड़ो ! यह कोई विद्याधर मेरी स्त्रियों को ले जा रहा है। यह सुनते ही सुभट लोग इधर उधर दौड़ने लगे । परन्तु प्रधान आदि उसी के पास आकर बोलने लगे कि, स्वामिन्! आपकी वे सब विद्याएं कहां गई ? उस वक्त वह कृत्रिम शुकराज खेद प्रगट करते हुए बोला - " हा ! हा ! क्या करू ? इस दुष्ट विद्याधर ने मेरी स्त्रियों के साथ प्राण के समान मेरी विद्याएं भी हरण कर लीं। उस वक्त उन्होंने कहा कि महाराज ! आपकी स्त्रियों सहित विद्याएं गई तो खैर जाने दो आपका शरीर कुशल है तो बस है। इस प्रकार के कपटों द्वारा उसने सारे राजमंडल को अपने वश कर लिया । और चन्द्रवती के साथ पूर्ववत् कामक्रीडा करने लगा | कितने एक दिनों के बाद शुक्रराज तीर्थ यात्रा कर रास्ते में लौटते हुये अपने श्वसुर वगैरह से मिल कर पीछा स्त्रियों सहित अपने नगर के उद्यान में आया। इस समय अपने किये हुए कुकर्म से शंका युक्त चन्द्रशेखर अपने गवाक्ष में बैठा था। वह असली शुकराज को आते देख कर कपट से अकस्मात् व्याकुल बन कर पुकार करने लगा कि, अरे सुभटों ! प्रधान ! सामन्तों ! यह देखो ! जो दुष्ट मेरी विद्याओं और स्त्रियों का हरण कर गया है, वह दुष्ट विद्याधर मेरा रूप बना कर मुझे उपद्रव करने के लिये आ रहा है। इसलिये तुम उसके पास जल्दी जाओ और उसे समझा कर पीछा फेरो। क्योंकि कोई कार्य सुसाध्य होता है और दुःसाध्य भी होता है । इसलिए ऐसे अवसर पर तो बड़े यत्न से या युक्ति से ही लाभ उठाया जा सकता है। उसने प्रधानादि को पूर्वोक्त वचन कहकर उसके सामने भेजा। मंत्रो सामन्तों को सामने आता देख असलो शुकराज ने अपने मन विचार किया कि ये सब मेरे सम्मान के लिए आ रहे हैं तब मुझे भी इन्हें मान देना उचित है । इस विचार से वह अपने विमान में से नीचे उतर वह एक आम्र वृक्ष के तले जा बैठा उसके पास जाकर प्रधानादि पुरुष वंदन स्तवना कर कहने लगे कि "हे विद्याधर ! वाद कारक के समान अब आपकी विद्याशक्ति को रहने दो। हमारे स्वाम की विद्या और स्त्रियों को भो आप हो हरण कर गये हैं। इस के विषय में हम इस समय आप को कुछ नहीं कहते इसलिये अब आप हम पर दया करके तत्काल हो अपने स्थान पर चले जाओ। क्या ये किसी भ्रम में पड़े हैं? या बिलकुल शून्य वित्त बने हैं ? या किलो भूत प्रेत पिशाच आदि से छले गये हैं ? ऐसे अनेक प्रकार के संकल्प विकल्प करता हुआ विस्मय को प्राप्त हो शुकराज कहने लगा कि “अरे प्रधान ! में स्वयं ही शुकराज हूं । तू मेरे सामने क्या बोल रहा है” ? प्रधान बोला- “क्या मुझे भी ठगना चाहते हो ? मृगध्वज राजा के वंशरूप सहकार में रमण करने वाला शुकराज ( तोता ) के समान हमारा स्वामी शुकराज राजा तो इस नगर में रहे हुये राजमहल में विराजता है और आप तो उसी शुकराज का रूप धारण करने वाले कोई विद्याधर हो । अधिक क्या कहें परन्तु असली शुकराज तो बिल्लो को देख कर ज्यों तोता भय पाता है वैसे ही तुम्हारे दर्शन मात्र का भी भय रखता है। इसलिये हे विद्याधर श्रेष्ट ! अब बहुत हो चुका, आप जैसे आये हो वैसे ही अपने स्थान पर चले जाओ" 1
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy