SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ anmaina श्राद्धविधि प्रकरण पूर्वभव के वैरभाव के कारण क्रोधायमान होकर हंसराजकुमार को मारने के लिये आया है। यह बात सुनते ही राजा विचारने लगा कि मैं तो मात्र नाम का ही राजा हूं, राज्य कार्य और उसकी सार सम्हाल तो शुकराज कुमार करता है। आश्चर्य तो इस बात का है कि वीरांग राजा मेरा सेवक होने पर भी उस के पुत्र का मेरे पुत्र पर क्या वैरभाव हो सकता है ? राजा हंसराज और शुकराज को साथ ले त्वरा से जब उसके सामने जाने का उपक्रम करता है उसी समय एक भाट आकर बोला कि महाराज हंसराज ने उसे पूर्वभव में कुछ पीड़ा पहुंचाई थी उस वैर के कारण वह हंसराज के ही साथ युद्ध करना चाहता है । यह सुनकर युद्ध करने के लिये तत्पर हुये अपने पिता और बड़े भाई को निवारण कर वीरशिरोमणि हंसराज स्वयं सन्नद्धबद्ध हो कर उसके सामने युद्ध करने के लिये गया । उधर से सुर भी युद्ध की पूर्ण तैयारी करके आया था इसलिये वहां पर सब के देखते हुये अर्जुन और कर्ण के समान बड़ा आश्रयकारी घोर युद्ध होने लगा । जैसे श्राद्ध में भोजन करने वाले ब्राह्मणों को भोजन की तृप्ति नहीं होती वैसे ही उन दोनों को बहुत समय तक युद्ध की तृप्ति न हुई ! दोनों ही समान बली, महोत्साही, धैर्यवान, शूरवीरों की जय श्री भी कितनेक वक्त तक संशय को ही भजती रही। कुछ समय के बाद जैसे इन्द्र महाराज पर्वतों की पांखें छेदन कर डालते हैं वैसे ही हंसराज ने सूरकुमार के सर्व शस्त्रों को छेदन कर डाला । उस वक्त मदोन्मत्त हाथी के समान क्रोधायमान हो सूरकुमार हंसराज को मारने के लिए वज्र के समान मुष्टि उठाकर उसके सामने दौड़ा । इस समय शंकाशील हो राजा ने तत्काल ही शुकराज की तरफ टिपात किया । अवसर को जानने वाले शुकराज ने उसी वक्त हंसराजकुमार के शरीरमें बड़ी बलवती विद्या संक्रमण की, जिस के बल से हंसराजकुमार ने जैसे कोई गेंद को उठा कर केंकता है उसी तरह सूरकुमार को तिरस्कार सहित उठा कर इतनी दूर फेंक दिया कि वह अपने सैन्य को भी उल्लंघन कर पिछली तरफ की जमीन पर जा गिरा । जमीन पर गिरते ही सूरकुमार को इस प्रकार की मूर्छा आई कि उसके नौकरों द्वारा बहुत देर तक उपचार होने पर भी उसे बड़ी कठिनाई से चेतना प्राप्त हुई । अब वह अपने मन में विचार करने लगा कि मुझे धिक्कार है, मैंने व्यर्थ ही इसके साथ युद्ध किया, इस प्रकार के रौद्र ध्यान से तो मुझे और भी अनंत भवों तक संसार में भ्रमण करना पड़ेगा। इन विवारों से उसे कुछ निर्मल बुद्धि प्राप्त हुई, अतः वैरभाव छोड़कर दोनों पुत्रों सहित नजदीक में खड़े हुये मृगध्वज राजा के पास जाकर अपने अपराध को क्षमा याचना करने लगा। राजा ने क्षमा कर उसे पूछा कि “तूने पूर्वभव का वैर किस प्रकार जान लिया ?" तब उसने कहा कि-"ज्ञान दिवाकर श्रीदत्त केवलज्ञानी जब हमारे गांव में आये थे तब मैने उनसे अपना पूर्व भव का हाल पूछा था। इस पर से उन्होंने मुझे कहा था कि हे सूर ! भहिलपुर नगर में जितारी नामा राजा था उसे हंसी तथा सारसी नाम की दो रानी तथा सिंह नामा प्रधान था । उन्हें साथ में लेकर जितारी राजा कठिन अभिग्रह धारण कर सिद्धाचल की यात्रा करने जा रहा था, मार्ग में गोमुख नामक यक्ष ने काश्मीर देश में बनाये हुये सिद्धाचल को यात्रा करके वहां पर ही विमलपुर नगर बसाकर कितने एक समय रहकर राजा ने अंत में वहां ही मृत्यु प्राप्त की। बाद में सिंह नामा प्रधान उस नूतन विमलपुरी के लोगों को साथ लेकर अपनी जन्म भूमि भहिलपुर नगर तरफ चला। जब
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy