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________________ ४६ श्राद्धविधि प्रकरण लघुवय होने पर भी धैर्यवान और विचक्षण पंडितों के समान तेरे साहसिक वचन कहां से" ? गांगिल महर्षि बोला-"क्षत्रिय वंश का ऐसा वीर्य और अहो बाल्यावस्था में भी इस प्रकार का तेज! सचमुच यह आश्चर्यकारक होने पर भी सत्य ही है । प्रातःकाल नूतन ऊगते हुये सूर्य का तेज किसी से देखा नहीं जा सकता इस प्रकार का होता है। यह कुमार यद्यपि उमर से बालक है परन्तु इस का बल और शक्ति महा प्रशंसा पात्र हैं । अतः इसको ही मेरे साथ तीर्थ रक्षा के लिए भेजो” । राजा ने कहा-“हे महाराज ! इतने छोटे बालक को वहां किस तरह भेजा जाय ? यद्यपि यह बालक शक्तिवान है तथापि इस अवस्था में भेजने के लिये माता पिता का मन किस तरह मान सकता है ? क्या उस तीर्थ की रक्षा करने में किसी प्रकार का भय नहीं है ? यद्यपि सिंह यह जानता है कि मेरो गुफा में से मेरे बच्चे को ले जाने के लिये अन्य कोई शक्तिवान नहीं है तथापि वह अपने बच्चे को सदैव अपनी नजर के सामने रखता है और उसे किसी वक्त कोई ले न जाय इस प्रकार का भय सदैव कायम रहता है । वैसे ही स्नेहियों को स्नेही के विषय में पद पद पर भय मालूम पड़े बिना नहीं रहता। इसलिए ऐसे छोटे बच्चे को क्यों कर भेजा जाय ?।" माता पिता के पूर्वोक्त वचन सुनकर समय सूचक शुकराज उत्साह पूर्वक उन्हें कहने लगा कि, हे पूज्य ! यदि आप मुझे आज्ञा दो तो मैं तीर्थ की रक्षा के लिए जाऊ ! मैं पवित्र तीर्थ की रक्षा करने के लिए अपने आप को बड़ा भाग्यशाली समझता हूं । तीर्थरक्षा की बात सुनकर मैं बड़ा ही प्रसन्न हुवा हूं, इसलिए मेरे पूज्य प्रिय माता पिता आप मुझे तीर्थभक्ति करने की आज्ञा देकर तीर्थसेवा में सहायक बनो"। ऐसे क्चन सुनकर राजा मंत्री के सामने देखने लगा। तब उसने कहा कि "आज्ञा देने वाले आप हैं, ले जाने वाले महर्षिजी हैं, रक्षा भी तीर्थ की ही करनी है, रक्षण करने वाला शूर, वीर और पराक्रमी शुकराज कुमार है और गोमुख यक्ष की सम्मति भी मिल चुकी है। यह तो दूध में शर्करा डालने के समान है, इसलिये आप आज्ञा देने में क्यों विलंब करते हैं" ? मंत्री का वचन सुनकर शुकराज को माता पिता ने सहर्ष जाने की आज्ञा दी। इसलिए प्रसन्न होकर शुकराज स्नेहपूर्ण नेत्रों से आंसू टपकाते हुए माता पिता को नमस्कार कर के गांगील महर्षि के साथ चलता हुआ। ___ महा पराक्रमी धनुर्धर अर्जुन के समान बाणों से भरे हुए तर्कस को स्कंध में बांधकर ऋषि के साथ तत्काल ही शत्रुजय के समीप ऋषि के तपोवन में शुकराजकुमार जा पहुंचा और शत्रुजय तीर्थ की सेवा, भक्ति और रक्षण के लिये सावधान रहने लगा। शुकराज के महिमा से ऋषियों के आश्रय में लगे हुये बाग बगीचों में फूल फल की वृद्धि होने लगी। इतना ही नहीं बल्कि शेर, चिता, सूअर आदि सर्व प्रकार के उपद्रव उसके प्रभाव से शांत हो गये। सचमुच यह उसके पूर्वभव में सेवन किये हुए धर्म का ही आश्चर्य कारक और अलौकिक प्रभाव है । तापसों के साथ सुख से समय निर्गमन करते हुये एक दिन रात्रि के समय एक रुदन करती हुई स्त्री के शब्द सुनकर दया और धैर्य के निधान उस शुकराज ने उस स्त्री के पास जाकर मधुर वचन से आश्वासन दे उसके दुःख का कारण पूछा; उसने कहा कि-चंपा नगरी में शत्रुओं को मर्दन करने वाला अरिदमन नामा राजा है । उस की गुणयुक्त साक्षात् लक्ष्मी के समान पद्मावती नामा पुत्री की मैं धाय माता हूं। उस लड़की को मैं अपनी गोद में लिये प्यार करती थी उस समय जैसे केसरी सिंह बछड़ी सहित गाय को
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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