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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ४५ नेत्रों से मानो अमृत की वृष्टि ही करता हो, ऐसे शुकराजकुमार की उम्र जब दस वर्ष की हुई उस वक्त कमलाला रानी ने दूसरे पुत्ररत्न को जन्म दिया। उसकी माता को देव सूचित स्वप्न के अनुसार राजाने उस लड़के का नाम महोत्सव पूर्वक हंसराज रक्खा । द्वितीया के चन्दमा के समान प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होता हुआ वह पांच वरस का हुआ। अब वह राजकुल के सर्व मनुष्यों को आनंदित करता हुआ रामचन्द्र जी के साथ ज्यों लक्ष्मण खेलता त्यों शुकराजकुमार के साथ विविध प्रकार की कोड़ा करता है। अर्थवर्ग और कामवर्ग के साथ क्रीड़ा करते हुए दोनों पुत्रों को धर्मवर्ग को भी मुख्यतया सेवन करना ही चाहिये, मानो यह बात विदित करने के लिये ही न आता हो, ऐसे एक दिन राजसभा में सिहासन पर बैठे हुये राजा के पास आकर छड़ीदार ने विनय पूर्वक अर्ज की कि, महाराज ! कोई गांगिल नामा महर्षि पधारे हैं और वे आपसे मिलना चाहते हैं। यदि आपकी आज्ञा हो तो दरबार में आने दूं ? यह सुनते ही हर्षचकित हो राजा ने आज्ञा दी कि महात्मा को हमारे पास ले आओ। महर्षि के राजसभा में पधारते ही राजा ने उठ कर उन्हें सन्मान देकर आसन पर बैठाया और विनय भक्ति पुरःसर क्षेम कुशल पूछने पूर्वक उन्हें अत्यंत आनंदित किया । महर्षि ने भी राजा को शुभाशिर्वाद देकर तीर्थ, आश्रम, एवं तापसों आदिका क्षेमकुशल समाचार दिया। राजा ने पूछा कि महाराज ! आपका यहां पर शुभागमन किस प्रकार हुआ ? ऋषिजी उत्तर देने लगे इतने ही में कमलमाला रानी को भी राजा ने अपने नजदीक में बंधवाये हुए परदे में बुलवा लिया, तदनन्तर गांगिल महर्षि अपनी पुत्री को कहने लगा कि, गोमुख नामक यक्षराज ने आज रात्रि में मुझे स्वप्न द्वारा विदित किया है कि मैं मूल शत्रुंजय तीर्थ पर जाता हूं। उस वक्त मैंने कि पूछा इस कृत्रिम शत्रुंजय तीर्थ की रक्षा कौन करेगा ? तब उसने कहा कि, निर्मल चरित्रवान जो तेरे दोनों दौहित्र ( लड़की के लड़के ) भीम और अर्जुन जैसे बलवंत शुकराज और हंसराज नामक हैं उनमें से एक को यहां पर लाकर तीर्थ की रक्षा के लिये रखेगा तो उसके माहात्म्य से यह तीर्थ भी निरुपद्रव रहेगा । मैंने पूछा कि, क्षितिप्रतिष्ठित नगर का मार्ग बड़ा लंबा होने से मुझे वहांतक पहुंचने में बहुतसा समय व्यतीत हो जायगा, उतने समय तक इस शत्रुंजय तीर्थ का रक्षण कौन करेगा ? तब गोमुख यक्ष ने कहा यद्यपि वहां जाने आने में बहुतसा समय लग सकता है तथापि यदि तू सुबह यहां से जायगा तो मध्याह्न तक ही मेरे प्रभाव ( दिव्य शक्ति) से उसे लेकर तू वापिस यहां आ सकेगा । ऐसा बोलकर यक्षराज तो चला गया और मैं यह बात सुन - 1 बड़ा आश्चर्य में पड़ा । यक्ष के वचन के अनुसार मैं आज ही सुबह वहां से यहां आने के लिये निकला । परंतु अभी तक एक प्रहर दिन नहीं चढ़ा है कि इतने में ही मैं यहां आ पहुंचा हूं। दिव्यशक्तिसे संसार में क्या नहीं बन सकता ? इसलिए हे दक्ष दंपति दक्षिणा के समान इन तुम्हारे दो पुत्र रत्नों में से एक पुत्र को मुझे तीर्थ रक्षण के लिये समर्पण करो कि जिससे हम दोपहर होने से पहले ही बिना परिश्रम के हमारे आश्रम में जा पहुंचें । यह वचन सुन कर दूसरे की अपेक्षा छोटा होने पर भी पराक्रमी हंसराज राजहंस की ध्वनी से बोला“हे पिता जी ! उस तीर्थ की रक्षा करने के लिए तो मैं ही जाऊंगा। अतः आप खुशी से मुझे ही आशा दो । " अतुल पराक्रमी उस बालक के ऐसे साहसिक उद्गार सुनकर उसके माता पिता ने कहा कि "हे पुत्र ! तेरी
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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