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________________ श्राद्दविधि प्रकरण मइ इति आगम प्रवचनात् । 'सात आठ भव उल्लंघन नहीं करें' इस प्रकार का आगमका पाठ होनेसे सचमुच ही सात आठ भवमें मोक्षपदको पाता है। यह अठारहवां द्वार समाप्त होते हुये सोलहवीं गाथाका अर्थ भी पूर्ण होता है। अब उपसंहार करते हुये दिन कृत्यादि के फल बतलाते हैं। मूल गाथा एअं गिहि थम्मविहि, पइदि अहं निव्वहंति जे गिहिणो॥ इहभव परभव निव्वुइ, सुहं लहुं ते लहंति धुवं ॥ १७ ॥ यह अन्तर रहित बतलाये हुए दिन कृत्यादिक छह द्वारात्मक श्रावक धर्मके विधिको जो गृहस्थ प्रति. दिन पालन करते हैं वे इस वर्तमान भवमें एवं आगामी भवमें अन्तर रहित आठ भवकी परम्परा में ही सुखका हेतु भूत पुनरावृत्ति ब्याख्यान संयुक्त निवृत्ति याने मोक्ष सुखको अवश्य ही शीव्रतर प्राप्त करते हैं। इति सत्रहवीं गाथार्थ॥ इति श्री तपागच्छाधिप श्री सोमसुन्दर सूरि श्री मुनि सुन्दर सूरि श्री जयचन्द्रर सूरि श्री भुवनसुन्दर सरि शिष्य श्री रत्नशेखर सूरि विरचितायां विधिकौमुदी नाम्न्यां श्राद्धषिधि प्रकरणवृत्तौ जन्यकृत्यप्रकाशकः षष्टः प्रकाशः श्रेयस्करः। प्रशस्ति विख्यात बपेसाल्या। जगति जगच्चंद्र सूरयो भुवन् । श्री देव सन्दर गुरुत्तमाश्च सदनुक्रमाद्विदिताः॥१॥ श्री जगत्चन्द्रसरि तपा* नामसे प्रसिद्ध हुये। अनुक्रम से प्रसिद्धि प्राप्त उनके पट्ट पर श्री देवसुन्दरसूरि हुये। पंच च तेषां शिष्यास्तेष्वाधा ज्ञानसागरा गुरंवः । विविधाव चणि लहरि प्रकटमन साम्बवानानाः॥२॥ उस देव सुन्दर सूरि महाराज के पांच शिष्य हुये। जिनमें ज्ञानामृत समुद्र समान प्रथम शिष्य ज्ञान* श्री जगत्चन्द्र सूरिको युवावस्थामें आचार्यपद प्राप्त हुआ था। वे निरन्तर अबिल तप करते थे अतः उनका गरीर कृश हो गया था। एक समय सं० १२८५ में वे उदयप्पर पधारे, उस वक्त वहांके संबने बडे आडम्बर से उनका नगर प्रवेश महोत्सव किया । उसवक्त नगरमें प्रवेश करते हुये राजमहल में एक गवाक्षसे महाराणा की पटरानीने कृश शरीर आचार्य महाराज को शक शरीर बाला देखा महारानी ने संघके आगेवानों को बुलवा कर पूछा कि जिसका तुम लोग इतने आडम्वर से प्रवेश महोत्सव कर रहे हो वह महाज्ञानी होने पर भी उसका इतना दुर्बल शरीर क्यों ? क्या तुम उसे पूरा खानपान नहीं देते ? आगेवानों ने कहा कि वे सदैव एक दफा शुष्क आहार करते हैं अर्थात् हमेशह आंबिल तप करते हैं इसी कारण उनका शरीर सूख गया है। यह सुन कर महारानीजी को बडा आनन्द हुआ और वहां आकर प्राचार्य महाराज को उसने 'तपा' विरुद पूर्वक सादर नमस्कार किया : वस उसवक से ही वढगच्छ को तपा विरुदकी शुरुआत हुई है।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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