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________________ श्राद्धविधि प्रकरण कृष्णके मन्दिर का बायां पासा, ब्रह्माके मन्दिरका दहिना पासा, निर्माल्य स्नान का पानी, ध्वजाकी छाया और विलेपन इतनी चीज वर्जने योग्य हैं। मन्दिर के सिखर की छाया और अरिहन्त की दृष्टि प्रशंसनीय है । कहा भी है कि बज्जिज्जई जिण पुठठी, रवि ईसर दिठि विएहु बायोम। सव्वथ्य असुह चण्डी, तम्हा पुण सव्वहा चयह ॥२॥ जिनकी पीठ वर्जना, सूर्य, शिवकी दृष्टि वर्जना, बाएँ विष्णु वर्जना, चंडी सर्वत्र अशुभकारी है अतः उसका सर्वथा त्याग करना। अरिहन्त दिष्ठि दाहिणा, हरपुठ्ठी वामए सुकल्ला। विवरीए बहु दुख्खं, परन मग्गंतरे दोसो ॥२॥ अहंत की दहिनी दृष्टि, शिवकी पीठ, बाए विष्णु कल्याणकारी समझना। इससे विपरीत अच्छे नहीं। परन्तु बीचमें मार्ग होवे तो दोष नहीं। ईसाणाइ कोणे, नयरे गामे न कीरिए गेहं । संतलो आए असुह, अन्तिम जाईण रिद्धिकर ॥३॥ नगरमें या गांवमें ईशान तरफ घर न करना, क्योंकि यह उच्च जाति वालोंको असुखकारी होता है। परन्तु नीच जाति वालोंके लिये ऋद्धि कारक है । घर करने में स्थानके गुण दोषका परिक्षान, शकुनसे, स्वप्नसे, शब्द, निमित्त से करना। सुस्थान भी उचित मूल्य देकर पड़ोसियों की संमति लेकर न्याय पूर्वक लेना। पन्तु दूसरे को तकलीफ देकर न लेना। एवं पड़ोसिओं की मर्जी बिना भी न लेना चाहिए। एवं ईट, पाषाण, काष्ठ वगैरह भी निर्दोष, हृढ, सारत्वादि गुण जान कर उचित मूल्य देकर ही मंगवाना। सो भी बेचने वालेके तैयार किये हुए ही खरीदना परन्तु उससे अपने वास्ते नवीन तैयार न करना। क्योंकि पैसा कराने से आरंभादि का दोष लगता है। "देवद्रव्य के उपभोग से हानि" सुना जाता है कि दो बनिये पड़ोसी थे उनमें एक धनवन्त और दूसरा निर्धन था। धनवान सदैव निर्धन को तकलीफ पहुंचाया करता था। निधन अपनी निर्धनता के कारण उसका सामना करने में असमर्थ होनेसे सब तरह लाचार था। एक समय धनवान का एक नया मकान चिना जाता था। उसकी भींत वगैरह में नजीक में रहे हुए जिन भुवन की पुरानी भीतमें से निकल पड़ी हुई, ईटें कोई न देख सके उस प्रकार चिन दीं। अब जब घर तैयार हो गया तब उसने सत्य हकीकत कह सुनायी तथापि वह धनवन्त बोला कि इससे मुझे क्या दोष लगने वाला है ? इस तरह अवगणना करके वह उस घरमें रहने लगा। फिर धनवान् का थोड़े ही दिनोंमें बज्राग्नि वगैरह से सर्वस्व नष्ट होगया । इसलिये कहा भी है कि पासाय कूब वाबी, मसाण मसाण मठ राय मंदिराणं च । पाहाण इट्टकठ्ठा, सरिसव पिचावि वजिजा ॥१॥
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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