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________________ श्राद्धविधि प्रकरण अथवा तत्र पुष्येषु खाते सत्युषि तेषु च । समार्थ शुकशुकेषु, भुवस्त्रैविध्य मा निशेत् ॥ ४ ॥ अथवा जमीन की खातमें पुष्प रख कर ऊपर वही मट्टी डाल कर सौ कदम चले इतने समय में यदि पुष्प न स्रुके तो वह उत्तम, आधा सुख जाय तो मध्यम और सारा सुख जाय तो जघन्य जमीन समझना इस तरह परीक्षा द्वारा तीन प्रकारकी जमीन जानना । त्रिपंच सप्त दिवस, रुप्त ब्रीह्यादि रोहणात् । ४१३ उत्तमा मध्यमा हीना, विज्ञ या त्रिविधा मही ॥ ५ ॥ तीन, पांच, सात दिनमें बोई हुई शाली वगैरह के ऊगने से उत्तम, मध्यम, और हीन इस तरह अनुक मसे तीन प्रकार की पृथ्वी समझना । व्याधिं वल्मीकिनींनैः स्वं शुषिरास्फुटितामृतिं । दन्ते भूः शल्य युगदुःखं, शल्यं ज्ञेयं तु यत्नतः ॥ ६ ॥ जमीन को खोदते हुए अन्दर से जो कुछ निकले उसे शल्य कहते हैं। जमीन खोदते हुए यदि उसमें से वल्मीकी ( बंबी ) निक्ले तो व्याधि करें, पोलार निकले तो निर्धन करे, फटी हुई निकले तो मृत्यु करे, हाड़ ave निकले तो दुःख दे, इस प्रकार बहुत से यत्नसे शल्य जाना जा सकता है । नृशल्य नृहान्यैः खरशल्ये नृपादिभिः । शुनोस्थिडिंभमृत्यैः शिशुशल्यं गृहस्वामि प्रवासाय । गौशल्यं गोधन हान्ये नृकेश कपालभस्मादि मृत्यै इत्यादि ॥ जमीनमें से नर शल्य हड्डियां निकले तो मनुष्य की हानि करे, खरका शल्य निकले तो राजादि का भय करे, कुत्तेकी हड्डियां निकलें तो बच्चों की मृत्यु करे, बालकों का शल्य निकले तो घर बनाने वाला प्रवास ही किया करे, यावे घरमें सुख से न बैठ सके। गायका शल्य निकळे तो गोधन का विनाश करे और मनुष्य के मस्तक के केश, खोपड़ी भस्मादिक निकलने से मृत्यु होती है । प्रथमत्य याम वर्णं द्वित्रि महार संभवा । छाया वृक्ष ध्वजादीनां सदा दुःखप्रदायनी ॥ १ ॥ पहले और चौथे प्रहर सिवाय दूसरे और तीसरे प्रहर की वृक्ष या ध्वजा वगैरह की छाया सदैव दुःखदायी समझना । वर्जयेदर्हतः पृष्ठ, पाश्वं ब्रह्म मधु द्विपोः । चंडिका सूर्योदृष्टि, सर्वमेवच शूलिनः ॥ २ ॥ अरिहन्त की पीठ वर्जना, ब्रह्मा और विष्णु का पासा वर्जना, चंडीकी और सूर्य देवकी दृष्टि वर्जनी, और शिवकी पीठ, पासा और दृष्टि वर्जना । वामांग वासुदेवस्य, दक्षिणं ब्रह्मणः पुनः । निर्माल्यं स्नानपानीयं ध्वजच्छाया विलेपनं । मशक्ता शिखरच्छाया, दृष्टिश्वापि तथार्हतः ॥ -
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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