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________________ રૂ श्राद्धविधि प्रकरण नायं स्वपिति देवेशो, न देवः प्रति बुध्यते । उपचारो हरेरेवं, क्रियते जबदागमे ॥२॥ यह विष्णु कुछ शयन नहीं करते एवं देव कुछ जागते भी नहीं। यह तो चातुर्मास आने पर हरीका एक उपचार किया जाता है। योगस्थे च हृषीकेशे, यद्वज्य तन्निशामयं । प्रवास नैव कुर्वीत, मृत्तिकां नैव खानयेत् ॥३॥ जब विष्णु योगमें स्थित होता है उस समय जो वर्जनीय है सो सुनो। प्रवास न करना, मिट्टी न खोदना। वृन्ताकान् राजभाषांश्च, वल्ल कुलस्थांश्च तूपरी। ___ कालिंगानि त्यजेद्यस्तु, मूलकं तंदुलीयकम् ॥४॥ बैंगन, बड़े उडद, बाल, कुलथी, तुवर ( हरहर ) कालिंगा, मूली, तांदलजा, वगैरह त्याज्य हैं। एकान्नेन महोपाल, चातुर्मास्यं निषेवते। चतुभुजो नरो भूत्वा, प्रयाति परमं पदम् ॥५॥ हे राजन् ! एक दफा भोजन से चातुर्मास सेवे तो वह पुरुष चतुर्भुज होकर परम पद पाता है। नक्तं न भोजयेद्यस्तु, चातुर्मास्ये विशेषतः। सर्व कामा नवाप्नोति, इहलोके परत्र च ॥६॥ जो पुरुष रात्रिको भोजन नहीं करता तथा चातुर्मास में विशेषतः रात्रि भोजन नहीं करता वह पुरुष इस लोकमें और परलोक में सर्व प्रकार की मन कामनाओं को प्राप्त करता है। यस्तु सुप्ते हृषीकेशे, मद्यमांसानि वर्जयेत् । मासे मासे श्वमेघेन, स जयेच्च शतं समा ॥ ७॥ विष्णुके शयन किये बाद जो मनुष्य मद्य और मांसको त्यागता है वह मनुष्य महीने महीने अश्वमेध यज्ञ करके सौ बरस तक जयवन्त वर्तता है, इत्यादिक कथन किया है। तथा मार्कण्डेय ऋषि भी कहते हैं कि तैलाभ्यंगं नरो यस्तु, न करोति नराधिप । बहु पुत्रधनयुक्तो, रोग होनस्तु जायते ॥१॥ ___ हे राजन् ! जो पुरुष तेल का मर्दन नहीं करता वह बहुन पुत्र और धनसे युक्त, होकर रोग रहित होता है। पुष्पादिभोगसंत्यागाव, स्वर्गलोके महीयते । कट्वालतिक्तमधुर, कषायतारजान रसान् ॥२॥ ____ पुष्पादिक के भोगको और कडवे, खट्टे, तीखे मधुर, कषायले, खारे, रसोंको जो त्यागता है वह पुरुष स्वर्ग लोकमें पूजा पात्र होता है। यो वर्जयेत् स वरूप्यं, दोर्भाग्यं नाप्नुयात क्वचित् । तांबूल वर्जनात राजन भोगी लावण्य माप्नुयात् ॥३॥
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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