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________________ www.ouriwavbvis. श्राद्धविधि प्रकरण कंठनाडी पतिक्रांत। सवत्तदशनं समं ॥ क्षणमात्रसुखस्यार्थे । लोव्यं कुबति नो बुधाः॥ कंठ नाडीसे नीचे उतरा हुआ सब कुछ समान ही होता है। इस प्रकारके क्षणिक सुखके लिये विचक्षण पुरुषको रसकी लोलुपता रखनी चाहिये ? कदापि नहीं। यह समझ कर भोजनके रसमें लालच न रखकर वाईस अभक्ष्य, वत्तीस अनंतकाय, वगैरह जिनसे अधिक पाप लगे, ऐसी बस्तुओंका परित्याग करके अपनी जठराग्नि का जैसा बल हो उस प्रमाणमें आहार करे। जो मनुष्य अपनी जठराग्निका बिचार करके अल्प आहार करता है वही अधिक खा सकता है। किसी दिन स्वादिष्ट भोजनकी लालसाके कारण प्रतिदिनके प्रमाणसे अधिक भोजन करनेसे अजीर्ण, वमन, विरेचन, बुखार, खांसो, वगैरह हो जानेसे अन्तमें मृत्यु तक भी होजाती है। इसलिये प्रतिदिन के प्रमाणसे अधिक भोजन न करना चाहिये। इसलिये कहा जोहे जाणप्पमाणं । जिमि अव्वे तहय जंपि अव्वे॥ ___ अईजिमिन जंपिमाण। परिणामो दारुणो होई ॥१॥ है जीभ तू भोजन करने और बोलने में प्रमाण रखना। अतिशय जीमने और बोलनेका परिणाम भयंकर होता है। अनान्यदोषाणि मितानिमुत्का। बचांसि चेत्त्वं वदसीत्थ्यमेव ॥ जंतोयुयुत्सोः सहकर्मवीर । स्तत्पट्ट बंधोरसने तथैव ॥॥ हे जीभ ! यदि तू प्रमाण सहित और दोष रहित अन्नको एवं प्रमाण सहित और दोष रहित बचनको उबयोगमें लेगी तो कर्मरूप सुभटोंके साथ युद्ध करने वाले प्राणियोंको मस्तक पर बंध समान होगी। हित मित विपकमोजी । बामशयी निस चंक्रमण शीलः॥ ___ उझ्झित मूत्रपुरीषः स्त्रीषु जितात्मा जयति रोगान् ॥३॥ अपने आपको हितकारी हो इस प्रकारका प्रमाणकृत और परिपक्व हुवा भोजन करने वाला, बार्य उंग सोनेवाला, भोजन करके घूमनेके स्वभाव वाला, लघुनीति एवं बड़ी नीतिकी शंका होनेसे तत्काल उसका त्याग करनेवाला और स्त्री विषयमें प्रमाण रखनेवाला पुरुष रोगोंको जीत लेता है। भोजनका विधि, ब्यवहार शास्त्र विवेक बिलासमें नीचे मुजब बतलाया है:अतिप्रातश्च सन्ध्यायाः। रात्रौ कुत्सन्नथ व्रजन् ॥ सव्याधौदत्त पाणीश्च । नाबारपाणिस्थितं तथा ॥६॥ अति प्रभात समय, अति सन्ध्या समय, रात्रिके समय, मार्ग चलते हुये, बांये पैर पर हाथ रखकर, ओर हाथमें लेकर भोजन न करना चाहिये। साकाशे सातपे सन्धिकारे द्र मतलेपि च ॥ कदाचिदपि नाश्नीया दर्शोकस्य च तर्जनीं ॥२॥ आकाशके नीचे बैठकर, धूपमें, अन्धकार में, वृक्ष के नीचे, तर्जनी अंगुलिको ऊंची रख कर कदापि भोजन न करना।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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