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________________ ३२२ श्राद्धविधि प्रकरण कुछ अनिष्ट न हो ऐसी शंका उत्पन्न हुये विना नहीं रहती । यद्यपि केसरीसिंह जहां जाता है वहां महत्ता ही भोगता है तथापि उसकी माताके मनमें भय उत्पन्न हुये बिना नहीं रहता कि न जाने कहीं मेरे पुत्रको किसी बातका कुछ भय न हो। ऐसा होनेपर भी उसे यथाशक्ति भयसे बचानेका उपाय प्रथमसे ही कर रखना योग्य है। बरसाद आनेसे पहले ही तालाव की पाल बान्धना उचित है। इसलिये हे पिताजी ! यदि आपकी आज्ञा हो तो रहनसारकुमार के समाचार लेनेके लिये मैं सेवकके समान उसके पीछे जाऊं । कदाचित् दैवयोग से वह विषमस्थिति में आ पड़ा हो तो वचनादिक संदेशा लाने ले जानेके लिये भी मैं उसे सहायकारी हो सकूंगा । वसुसारके मनमें भी यही विचार उत्पन्न होता था और तोतेने भी यही विचार बिदित किया इससे उसने प्रसन्न होकर कहा कि हे शुकराज ! तूने ठीक कहा । हे निर्मल बुद्धिवाले शुकराज ! तू रत्नकुमार को सहायकारी बननेके लिये शीघ्र गतिसे जा! जिस प्रकार अपने लघुबान्धव लक्ष्मणकी सहायसे पूर्ण मनोरथ रामचन्द्र शीघ्र ही पुनः अपने घर आ पहुंचा वैसे ही तेरी सहायसे कुमार भी सुख शान्तिपूर्वक अपने घर आ सकेगा । ऐसी आज्ञा मिलते ही अपने आपको कतार्थ मानता हुआ वह तोता पिंजड़ेमेंसे निकल कर रत्नसार कुमारके पीछे दौड़ा। जब वह तोता एक सच्चे सेवकके समान रत्नसार के पास जा पहुंचा और उसे प्रमसे बुलाने लगा तब रत्नसार ने उसे अपने लघुबन्धुके समान प्रमपूर्वक अपनी गोद में बिठाया । सब अश्वोंमें रत्न समान ऐसे उस अश्वरत्न ने नररत्न रत्नसार को प्राप्त करके अति गर्वपूर्वक अपने साथी सब सवारोंको पीछे छोड़ दिया । मूर्खलोग पंडितोंसे आगे बढ़नेके लिये बहुत ही उद्यम करते हैं तथापि वे पीछे ही पड़ते हैं उसी प्रकार प्रथमसे ही उत्साह रहित रत्नसार के मित्रोंके घोड़े दुःखित हो रास्ते में ही रह गये । जमीनकी धूल शरीर पर न आ पड़ े मानो इसी भयसे वह सुन्दर कायवाला अश्वरत्न पवनवेग के समानके तीव्र गति से दौड़ता हुवा चला जा रहा है। इस समय पर्वत, नदी, जंगल, वृक्ष, पृथ्वी वगैरह जो कुछ सामने देख पड़ता है, सो सब कुछ सन्मुख उड़ते हुये आता देखा पड़ता है । इसी प्रकार अतिवेग से गति करता हुवा वह अभ्वरत्न एक शबरसेना नामक महा भंयकर अटवीमें जा पहुंचा। वह अटवी मानो अपनी भंयकरता प्रगट करनेके लिये ही चारों तरफसे पुकार न कर रही हो इस प्रकार वहां पर हिंसक भयंकर पशुओंके भय, उन्माद, और वित्त विभ्रमको पैदा करने वाले भयानक शब्दोंकी ध्वनि और प्रतिध्वनि द्वारा गूंज रही थी । हाथी, सिंह व्याघ्र, बराह वगैरह जंगली जानवर वहां पर परस्पर युद्ध कर रहे हैं । गीदड़ोंके शब्द सुन पड़ते हैं। उस अटवीकी भयंकरता की साक्षी देने के लिये ही मानो उस अटवीके वृक्ष पवनके द्वारा अपनी शाखा प्रशाखाओं को हिला रहे हैं। उस अटवीमें कहीं कहीं पर जंगलमें रहने वाले भील लोगोंकी युवति स्त्रियां मिलकर उच्च स्वरसे गायन कर रही हैं मानों वे कुमारको कौतुक दिखलाने के लिये ही वैसा करती हैं। अटवी में आगे जाते हुये रत्नकुमार ने एक हिंडोलेमें झूलते हुये, जमीन पर चलने बाला मानो पातालकुमार ही न हो इस प्रकारके सुन्दर आकर वाले और स्नेहयुक्त नेत्रवाले एक तापसको देखा । वह तापस
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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