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________________ ३२१ श्राद्ध विधि प्रकरणं घरमें भी कुछ न हो ऐसी अलौकिक दिव्य वस्तुको तुझे प्राप्ति हो। परन्तु तू तो अपने घरके रहस्य को भी नहीं जानता, तब फिर यथा तथा बोलकर तू मेरो विडम्बना क्यों करता है ? जब तू उस अश्व पर सवारी करेगा उस वक्त तेरी धीरता, वीरता और विचक्षणता मालूम होगी। यों कहकर वह किन्नर देव अपनी देवी सहित सन सनाहट करता आकाश मार्ग से चला गया। जो आज तक कभी भी न सुना था ऐसा चमत्कारी समाचार सुन कर कुमार इस विवारसे कि मेरे पिताने सचमुच मुझे प्रपंच द्वारा ठगा है, क्रोधसे दुःखित हो अपने घरके एक कमरे में दरवाजा बन्द कर पलंग पर सो रहा। यह बात मालूम होनेसे उसका पिता खेद करता हुआ आकर कहने लगा कि हे पुत्र! तुझे आज क्या पीड़ा उत्पन्न हुई है ? और वह पीड़ा मानसिक है या कायिक ? तू यह बात मुझे शीघ्र बतलादे कि जिससे उसका कुछ उपाय किया जाय! क्योंकि मोती भी बिन्धे बिना अपनी शोभा नहीं दे सकता या अपना कार्य नहीं कर सकता। वैसे ही जबतक तू अपने दुःखकी बात न कहे तब तक हम क्या उपाय कर सकते हैं ? पिताके पूर्वोक्त बचन सुनकर कुमारने तत्काल उठकर कमरेका दरवाजा खोल दिया और जंगलमें किन्नर द्वारा सुना हुआ सब समाचार पिताको कह सुनाया। तब विचार करके पिता बोला कि भाई ! सचमुच ही इस घोड़ेके समान अन्य घोड़ा दुनियां भरमें नहीं है; परन्तु तुझे यह सब समाचार मालूम होनेसे तू उस अश्वरत्न पर चढ़कर दुनियां भरके कौतुक देखनेके लिए सदैव फिरता रहेगा; इसलिये हमसे तेरा वियोग किस तरह सहा जायगा; इस बिचारसे ही यह अश्वरत्न आज तक हमने तुझसे गुप्त रख्खा है। जब तू इस बातमें समझदार हुआ है तब यह अश्वरत्न तुझे देने योग्य है क्योंकि यदि मांगने पर भी न दिया जाय तो स्नेहमें अग्नि सुलग उठती है। उसे लेकर तू खुशीसे अपनी इच्छानुसार वर्त। यों कह कर राजाने उसे लीलाविलासवन्त घोड़ा समर्पण किया। जिस प्रकार कोई निर्धन निधान पाकर खुशी होता है वैसे ही अश्वरत्न मिलने पर कुमार अत्यन्त प्रसन्न हुवा। फिर उस घोड़े पर मणि रत्नजटित जीन कसकर उस पर चढके निर्मल बुद्धिवाला रत्नकुमार मेरुपर्वत पर जाज्ज्वल्यमान सूर्यके समान शोभने लगा। समान अवस्थावाले और समान आचार विचारवाले रंग विरंगे घोड़ों पर चढ़े अपने मित्रोंको साथ ले नगरसे बाहर जाकर उस घोड़ेको फिराने लगा। द्रुतगति, वलिगत प्लुतगति, उत्तेजित गति, एवं अनुक्रमसे चार प्रकारकी गति द्वारा कुमारने उसे इच्छानुसार फिराया। जिसप्रकार सिद्धका जीव शुक्लध्यान के योगसे चार गतिका त्याग करके पांचवीं गतिमें चला जाता है वैसे ही उसके मित्रादिकों को छोड़कर वह अश्वरत्न रत्नसार को लेकर आगे चला गया। उसी समय वसुसार नामा शेठके घर पिंजडे में रहा हुआ एक विवक्षण तोता मनमें कुछ उत्तम कार्य विचार कर शेठसे कहने लगा कि हे पिताजी! वह रत्नसार नामक मेरा भाई उत्तम घोड़ेपर चढ़कर बड़ी जल्दीसे जा रहा है, वह कौतुक देखनेमें सचमुच ही बड़ा रसिक और चंचल वित्त है, तथापि यह घोड़ा हिरनके समान अति वेगसे बहुत ही ऊंची छलांगे मारता हुआ जाता है। अतिचपल विद्यु तके चमत्कार समान देवका कर्तव्य है, इसलिये हे आर्य ! नहीं मालूम होता कि, इस कुमारके कार्यका क्या परिणाम आयगा। यद्यपि मेरा बन्धु रत्नसार कुमार भाग्यका एक ही रत्नाकर है उसे कदापि अशुभ नहीं हो सकता तथापि उसके स्नेहियोंको या उसे
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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