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________________ श्राद्धविधि प्रकरण २६५ वधुओं को बुद्धिकी परीक्षा करके प्रत्येकको जुदा २ गृहकार्य सोंपा। पहली उज्झिया-दाने फेंक देने वालीको घरका कचरा कूड़ा बाहर फेंकनेका काम सौंपा। दूसरी भक्खिया - दाने भक्षण करने वाली बहुको घरकी रसोई करनेका कार्य सोंपा। तीसरी रक्खिया - गहनेकी डब्बी में दाने रक्षण करने वाली बहूको भंडार सुपूर्द किया। चौथी बहू रोहिणी दाने बढ़ाने वालीको घरका सर्वोपरि स्वामित्व समर्पण किया । पच्चख्खं न पसंसइ । वसणो वहयाण कहई दुखथं ॥ श्रावयमवसे संच | सोहण सयमिमे हिंतो ॥ 1 1 पुत्र सुनते हुए पिता उसकी प्रशंसा न करे, जब कभी पुत्र पर कुछ कष्ट आ पड़ा हो तब उसका बचाव करे, पुत्रके पास आय और व्ययका हिसाब लेता रहे । पुत्र पर हरएक प्रकारले नजर. रक्खे । पुत्रकी प्रशंसा न करनेके विषयमें लिखा है कि: प्रत्यक्षे गुरवः स्तुत्या । परोक्षे मित्र बांधवाः ॥ कर्मान्ते दासभृत्याश्च । पुत्रा नैव मृता स्त्रियः ॥ "गुरु - ( माता, पिता, धर्मगुरु ) को स्तुति, प्रशंसा उन्होंके सुनते हुए ही करना, मित्र, बन्धु जनों की स्तुति उनके परोक्षमें करना, नोकरोंकी प्रशंसा जब वे कुछ कार्य सुधार लाये हों तब करना, परन्तु पुत्रकी न करना और स्त्रोकी उसकी मृत्युके बाद प्रशंसा करना ।” उपरोक्त रीतिसे पुत्र की प्रशंसा उसके प्रत्यक्ष या परोक्षमें न करना; तथापि उसके गुणसे मुग्ध हो जाने के कारण कदापि उसकी प्रशंसा करनी पड़े तो उसके सुनते हुए कदापि न करना। क्योंकि यदि पिता उठ कर पुत्रकी प्रशंसा करे तो वह पुत्र अभिमान में आ जाय । फिर वह आज्ञानुसार न चल सके, विना पूछे काम काज करने लग जाय । इत्यादि कितने एक अवगुणों की प्राप्तिका सम्भव है । पुत्रको कुछ भी संकट आ पड़ा हो जैसे कि जुए में हार जाना, व्यापार में फैल होना, निर्धन होना, किसीसे अपमान होना, मार खाना, तिरस्कृत होना, वगैरह किसी कष्टके आ जाने पर तत्काल ही उसे सहायक बनना, हर एक प्रकारसे उसका बचाव करना । तथा पुत्रको जो कुछ खर्चने के लिए दिया हो उसका पूरा हिसाब लेना । ऐसा करने से पुत्र प्रभुताका गव करनेसे अटक सकता है; और वह स्वच्छन्दी नहीं बनता । द सेइ नरिंदसमं । देवरभाव पडणं कुराई ॥ नच्चाइ अवच्चमय' । उचिचं पिउणो मुणेयव्वं ॥ राज दरबारकी सभा दिखलाना, परदेशके स्वरूप प्रगट कर बतलाना, इत्यादिक पुत्रके प्रति उचित पिताको करना योग्य है ! क्योंकि यदि पुत्रको राज दरबारका परिचय न कराया हो तो कदापि दैवयोग से उस पर कुछ अकस्मात् कष्ट आ पड़े तब उसे क्या करना, किसका शरण लेना, इस बातका बड़ा भय आ पड़ता है । इसलिए यदि सरकारी मनुष्यों के साथ पहले से ही परिचय हुवा हो तो उसके उपायकी योजना की जा सकती है। तथा दरबारी पुरुष अकस्मात् ( वकीलादिक ) के पास जा खड़ा रहनेमें और आगे
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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