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________________ श्राद्धविधि प्रकरण २३ गुरुदेव धम्मं सुहिसयण । परियं कारवेइ निच्च पि॥ उत्तम लोएहिं सम्मं । मिचिभावं रयावेइ ।। देव, गुरु, धर्मकी संगति बाल्यावस्था से ही सिखलानी चाहिये। सुखी, स्वजन, सगे सम्बन्धी और उत्तम लोगोंके साथ उसकी प्रीति और परिचय कराना। यदि बाल्यावस्था से ही बालकको गुरु आदिक सज्जनों का परिचय कराया हो तो खराब वासनासे बच कर, वह प्रथमसे ही अच्छे संस्कारों से वलकल चीरीके समान आगे जाकर लाभकारी हो सकता है। उत्तम जाति, कुल, आचारवन्तों की मित्रता, वाल्यावस्था से ही हुई हो तो कदाचित काम पड़ने पर अर्थकी प्राप्ति न हो, तो भी अनर्थ तो दूर किया जा सकता है। जैसे कि अनार्य देशमें उत्पन्न हुए आर्द्रकुमार को अभयकुमार की मित्रतासे उसी भवमें सिद्धि प्राप्त हुई। गिराहावेइ अपाणि समाण कुलजम्मरूव कन्नाणं ॥ गिहिभारंमि नियुजइ। पहुत्तणवियरइ कमेण ॥ पुत्रको समान वय, समान गुण, समान कुल, समान जाति और समान रूपवाली कन्याके साथ पाणिग्रहण करावे। उस पर घरका भार धीरे २ डालता रहे और अन्तमें उसे घरका स्वासी करे। ___यदि समान वय, कुल, गुण, रूप, जाति वगैरह न हो तो स्त्री और पतिको ग्रहस्थावास दुःखरूप हो पड़ता है, परस्पर दोनों कंटाल कर अनुचित प्रवृत्तियों में भी प्रवृत्त हो जाते हैं। इस लिये समान गुण, वयादिसे सुखशान्ति मिलती है। "बेजोड़की सुजोड़" सुना जाता है कि भोजराजा की धारानगरी में एक घरमें पुरुष अत्यन्त कद्रूप और निर्गुणी था परन्तु उसकी स्त्री अत्यन्त रूपवती और गुणवती थी। दूसरे घर में इससे बिलकुल विपरीत था, याने पुरुष रूपवान् और उसकी स्त्री कद्रूप थी। एक समय चोरी करने आये हुए चोरोंने वैसी बेजोड़ देख दोनों त्रियोंको अदल बदल करके सरीखी जोड़ी मिला दी। सुवह मालूम होनेसे एक मनुष्य बड़ा खुशी हुवा और दूसरा बड़ा नाराज। जो नाराज हुवा था वह दरबारमें जाकर पुकार करने लगा। इससे इस बातका निर्णय करनेके लिए भोजराजा ने अपने शहरमें ढिंढोरा पिटवा कर यह मालूम कराया कि इस जोड़ेको अदल बदल करने वालेका जो हेतु हो सो जाहिर करे। इससे उस चोरने प्रगट होकर विदित किया कि पया निशी नरेन्द्रण । परद्रव्यापहारिणा। लुप्तो विधिकृतो मार्गो । रत्न रत्ने नियोजितं ॥ मैंने चोरके राजाने विधाताका किया हुवा खराब मार्ग मिटा कर, रात्रिके समय रत्नके साथ रहनकी जोड़ी मिला दी। अर्थात बेजोड़को सुजोड़ कर दिया। यह बात सुनते हुये भोज राजाने हंस कर प्रसन्नता पूर्वक यह हुक्म दिया कि चोरने जो योजना की वह यथार्थ ओवेसे उसे वैसे ही रहने देना योग्य है।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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