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________________ श्राविधि प्रकरण २५६ समय उसे निकम्मी न बैठा रख कर किसी न किसो उचित कार्यमें जोड़ रखना उचित है । पर्व मुनिराज भी हमेशह संयम द्वारा अपने आत्मा को गोप रखते हैं। तथा अफ्नी स्त्रीको स्वाधीन रखना हो तो उसे अपना वियोग न कराना, क्योंकि निरन्तर देखते रहने से प्रेम बढ़ता है। प्रेम कायम रखनेके लिये शास्त्रमें लिखा है कि: अवलो प्रणेण पालावणेण । गुण कित्तणेण दाणेण ॥ छन्देण वट्टमाणस्स । निभ्भर जायए पिम्मं॥ ___ स्त्रीके सामने देखनेसे, उसे बुलानेसे, उसमें विद्यमान गुणोंको कहनेसे, धन, वस्त्र, आभूषण, देनेसे, वह ज्यों राजी रहे वैसा बर्ताव करने से निरन्तर प्रेमकी वृद्धि होती है। असणेण अइदंसणेण । दिठे प्रणालवंतेण ॥ माणेण पम्पणेणय । पंचविहं जिज्तए पम्यं ॥ बिलकुल न मिलनेसे, अतिशय, घड़ी घड़ी मिलनेसे दीखने पर न बुलानेसे, अभिमान रखनेसे, अपमान करनेसे इन पांच कारणोंसे प्रेम बन्धन ढीला हो जाता है। उपरोक्त स्नेह बृद्धीके कारणोंसे प्रेम बढता है उससे विपरीत पांच कारणोंसे प्रेम घटता है; इस लिये स्त्रीको वियोगवती रखना ठीक नहीं। क्योंकि उससे प्रेम घट जाता है। अत्यन्त प्रवासमें फिरनेके कारण बहुत दिनों तक वियोगिनी रहने से उदास होकर कदाचित् अयोग्य वर्तन होनेका भी सम्भव है जिससे कुलमें कलंक लगने का कारण भी बन जाता है। इसलिये स्त्रीको वहुत दिन तक वियोगिनी न रखना चाहिये। बिना किसी महत्वके कारण स्त्रीका अपमान न करना तथा एक स्त्री होने पर दूसरी व्याह कर उसका अपमान न करना । स्त्रीके कंठ जाने पर या किसी कारण उसे गुस्सा आजाने से दूसरी स्त्री व्याह कर उसका कदापि अपमान न करना। ऐसा करने से मूर्खता के कारण उसे बड़ा कष्ट उठाना पड़ता है इसलिये शास्त्रमें कहा है कि: बुभुखितो गृहायाति । नाप्नोत्यंषु छटामपि ॥ प्रक्षालितपदः शेते । भार्याद्वयवशो नरः॥ दो त्रियोंके वश हुवा पुरुष जब भूखा होकर घर भोजन करने जाय तो तब भोजन मिलमा तो दूर रहा परन्तु कदाचित् पानी पीने को भी न मिले तथा स्नान करनेकी तो बात ही क्या कदाचित् पैर धोनेको भी पानी न मिले। वर कारागृहे तितो। वरं देशांतर भ्रमी। वर नरकसंचारी। न द्वीभार्या पुनः पुनः॥ . कैदमें पड़ना अच्छा है, परदेशमें ही फिरना श्रेष्ठ है और नरकमें पड़ना ठीक है परन्तु एक पुरुषको दो स्त्रियां करना बिलकुल ठीक नहीं। क्योंकि उसे अनेक प्रकारके दुःख भोगने पडते हैं । कदापि कर्म वशा
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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