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________________ २७० श्राद्धविधि प्रकरण कुंडलको बेच कर उसके द्रव्यसे बहुतसा माल खरीद लावा और उसे हिस्सेवाली दूकानमें भरकर पूर्ववत बेचने लगा। माल बहुत आया था इसलिये उसे देखकर देवोशाह ने पूछा कि भाई ! इतना सारा माल कहांले आया ? उसने ज्यों त्यों जबाव दिया, इसलिये देवोशाह ने फिर कसम दिला कर पूछा तथापि उसने सत्य बात न कहकर कुछ गोलमाल जबाव दिया। देवोशाह बोला कि भाई ! मुझे अन्यायोपार्जित वित्त अग्राह्य है और मुझे इसमें कुछ दालमें काला मालूम देता है, इस लिये मैं अब तुम्हारे हिस्से में व्यापार न न करूंगा। तुम्हारे पास मेरा जितना पहलेका धन निकलता हो उसका हिस्सा कर दो, क्योंकि अन्याय से उपार्जित वित्तका जैसे छाछ पड़नेसे दूधका विनाश हो जाता है, वैसे ही नाश हो जाता है, इतना ही नहीं परन्तु उसके सम्बन्ध से दूसरा भी पहला कमाया हुवा निकल जाता है। यों कह कर उसने तत्काल स्वयं हिसाब करके अपना हिस्सा जुदा कर लिया और जुदा व्यापार करनेके लिये जुदी दुकान ले कर उसी वक्त उसने वह हिस्से में आया हुवा माल भर दिया। जशोशाह विचार करने लगा कि, यद्यपि यह अन्यायोपार्जित वित्त है तथापि इतना धन कैसे छोड़ा जाय ? यह विचार कर दूकानको वैसे ही छोड़ ताला लगाकर वह अपने घर जा बैठा। दैवयोग उसी दिन रातको यशोशाह की दूकानमें चोरी हुई और उसका जितना माल था वह सब चुराया गया जिससे खबर पड़ते ही प्रातःकाल में जशोशाह हाय हाय, करने लगा और देवोशाह की दूकान अन्य जगह वैसा शुद्ध माल न मिलनेसे खूब चलने लगी; इससे उसे अपने माल द्वारा बड़ा भारी लाभ हुवा। देवोशाह के पास भाकर यशोशाह बड़ा अफसोस करने लगा, तब उसने कहा कि भाई अब तो प्रत्यक्ष फल देखा न ? यदि मानता हो तो अब भी ऐसे काम न करनेकी प्रतिज्ञा ग्रहण कर ले। इस तरह समझा कर उसे प्रतिज्ञा करा शुद्ध व्यापार करनेकी सूचना की। वैसा करनेसे वह पुनः सुखी हुवा। इसलिये न्यायोपार्जित वित्तसे सर्व प्रकारको वृद्धि और अन्यायके द्रव्यसे सचमुच ही हानि विना हुये नहीं रहती। अतः न्यायसे ही धन उपार्जन करना श्रेयस्कर है। "न्यायोपार्जित वित्त पर लौकिक दृष्टान्त" चम्पानगरीमें सोमराजा राज्य करता था। उसने एक दिन अपने प्रधानसे पूछा कि-'उस्तराषण पर्वमें कौनसे पात्रमें सुद्रव्य दान देनेसे विशेष लाभ होता है ?" प्रधानने कहा-"स्वामिन् ! यहाँ पर एक उत्तम पात्र तो विप्र है परन्तु दान देने योग्य द्रव्य यदि न्यायोपार्जित वित्त हो तब ही वह विशेष लाभ हो सकता है। न्यायोपार्जित वित्त न्याय व्यापारके बिना उपार्जन नहीं हो सकता। वह तो व्यापारियों में भी किसी विरलेके ही पास मिल सकता है, तब फिर राजाओंके पास तो हो ही कहांसे १ न्यायोपार्जित वित्त ही श्रेष्ठ फल देनेवाला होता है; इस लिए वही दान मार्गमें खर्चना चाहिये। कहा है कि दातुं विशुद्धवित्तस्य, गुणयुक्तस्य चार्थिनः। दुर्लभः खलु योगः, सुबीजक्षेत्रयोरिव ॥
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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