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________________ २६ श्राद्धविधि प्रकरण "न्यायोपार्जित धनसे लाभ" ऊपर लिखे मुजब न्यायोपार्जित वित्तमें कितने एक लाभ समाये हुये हैं सो बतलाते हैं। प्रशंकनीयत्व न्यायसे प्राप्त किये धनमें किसीका भी भय उत्पन्न नहीं होता, उससे मर्जी मुजब उसका उपयोग किया जा सकता है। प्रशंसनीयत्व न्यायसे कमाने वालेकी सब लोग प्रशंसा ही करते हैं । अदीनविषयत्व-न्यायसे कमाये हुये धनको भोगनेमें किसीका भी भय न होनेसे अदीनतया याने दुःख नहीं भोगना पड़ता, एवं किसीसे उसे छिपानेकी भी आवश्यकता नहीं पड़ती, सबके देखते हुये उसका उपयोग किया जा सकता है। सुख समाधीद्धिहेतुत्व-वह सुख शान्तिसे भोगा जा सकता है और दूसरे व्यापारमें भी वह वृद्धि करने में सहा. यक बनता है। पुण्यकार्योपयोगीवादि-उसे पुण्य कार्यों में खरचने की इच्छा होती है, अन्य भी अच्छे कामोंमें सुखसे खर्चा जा सकता है, और खराब कार्योंमें उपयोग नहीं होता। जिससे पापकार्य रोके जा सकते हैं इत्यादि लाभ समाये हुये हैं। "इहलोकपरलोकहितं” जगतमें भी शोभाकारी होता है, जीवन पर्यन्त इस लोकमें उससे हितके ही कार्य होते हैं, अनिन्दनीय गिना जाता है इससे इस लोकमें संपूर्ण सुख भोगा जा सकता है, उससे सगे सम्बन्धी सज्जन लोगोंके कार्यमें यथोवित खर्च किया जा सकता है। और अपने कानों अपनी यश कीर्ति सुनी जा सकती है और परभवमें भी हितकारी होता है। सर्वत्र शुचयो धीराः । स्वकर्मबलगर्विताः ॥ कुकर्मनिहतात्मानः। पापाः सर्वत्र शंकिताः ॥ धर्मी और बुद्धिमान पुरुष सर्वत्र अपने शुभ कृत्योंके बलसे गर्वित रहता है (शंका रहित निर्भय रहता है ) और पापी पुरुष अपने किये हुये पाप कर्मोंसे सर्वत्र शंकित ही रहता है। "शंकित रहने पर जशोशाहका दृष्टान्त" ___ एक गांवमें देवोशाह और जशोशाह नामक दो बनिये प्रीतिपूर्वक साथ ही व्यापार करते थे। वे दोनों जने किसी कार्यवश किसी गांव जा रहे थे। मार्गमें एक रत्नका कुंडल पड़ा हुवा देख देवोशाह विचारने लगा कि मैंने तो किसीकी पड़ी हुई वस्तु उठा लेनेका परित्याग किया हुवा है, इस लिये मैं इसे ले तो नहीं सकता, परन्तु अब इस मार्गसे आगे भी नहीं जा सकता। ऐसे बोलता हुवा वह पीछे फिरा, जशोशाह भी उसके साथ पीछे लौटा सही परन्तु पड़ी हुई वस्तु दूसरेकी नहीं गिनी जाती या पड़ी हुई वस्तुको लेने में कुछ भी दोष नहीं लगता इस विचारसे देवोशाह को मालूम न हो, इस खूबीसे उसने वह पड़ा हुवा कुंडल उठा लिया, तथापि मनमें विचार किया कि धन्य है देवोशाह को कि जिसे ऐसी निस्पृहता है ! परन्तु मेरा हिस्सेदार होनेसे इसमेंसे इसे हिस्सा तो जरूर दूंगा। यदि इसे मालूम हो गया तो यह बिलकुल न लेगा, इस लिये मैं ऐसी युक्ति करूंगा कि जिससे इसे खबर ही न पड़े । यशोशाह यह विवार कर वह देवो. शाहके साथ वापिस आया। फिर अपने मनमें कुछ युक्ति धारण कर जशोशाह दूसरे गांव जाकर उस
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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