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________________ श्राद्धविधि प्रकरण तथा थोडीसी संपदा प्राप्त करके फिर कमानेके उद्यमसे बैठ न रहना, इस लिये माघ काव्यमें कहा है कि जो पुरुष थोड़ी संपदा पाकर अपने आपको कृतकृत्य हुवा मान बैठता है उसे मैं मानता हूं कि विधि भी विशेष लक्ष्मी नहीं देता। "अति तृष्णा या लोभ न करना" अति तृष्णा भी न करना चाहिये इस लिये लौकिकमें भी कहा है कि अति लोभ न करना एवं लोभको सर्वथा त्याग भी न देना । जैसे कि अति लोभमें मूर्छित हुये चित्त वाला सागरदत्त नामक शेठ समुद्रमें पड़ा (यह दृष्टान्त गौतन कुलककी बृत्तिम बतलाया हुवा है ) लोभ या तृष्णा विशेष रखनेसे किसीको कुछ अधिक नहीं मिल सकता। जैसे कि इच्छा रखनेसे वैसा भोजन वस्त्रादिक सुख-पूर्वक निर्वाह हो उतना कदापि मिल सकता है; परन्तु यदि रंक पुरुष चक्रवर्ती की ऋद्धि प्राप्त करनेकी अभिलाषा करे तो क्या उसे वह मिल सकती है ? इस लिये कहा जाता है कि,अपनी मर्जी मुजब फल प्राप्त करनेकी इच्छा रखने वालेको अपने योग्य ही अभिलाषा करनी उचित है। क्यों कि लोकमें भी जो जितना मांगता है उसे उतना ही मिलता है, परन्तु अधिक नहीं मिलता। अथवा जिलका जितना लेना हो उतना मिलता है, परन्तु तदुपरान्त नहीं मिलता। उपरोक्त न्यायके अनुसार अपने भाग्यके प्रमाणमें ही इच्छा करनी योग्य है, उससे अधिक इच्छा करनेसे वह पूरी न होनेसे चिन्ताके कारण अत्यन्त दुःसह्य दुःख पैदा होनेका सम्भव है। ___ एक करोड़ रुपये पैदा करनेके लिये सैकड़ों दका लाखों दुःसह्य दुःखोंसे उत्पन्न हुई अति चिन्ताके भोगनेवाले निन्यानवे लाख रुपयोंके अधिपति धनावह शेठके समान अपने भाग्यमें यदि अधिक न हो तो कदापि न मिले। इसलिये ऐसी अत्यन्त आशा रखना दुःखदायी है। अतः शास्त्रमें लिखा है किमनुष्यको ज्यों ज्यों मनमें धारण किये हुए द्रव्यकी प्राप्ति होती है त्यों त्यों उसका मन विशेष दुःख युक्त होता जाता है। जो मनुष्य आशाका दास बना वह तीन भुवनका दास बन चुका और जिसने आशाको ही अपनी दासी बना लिया तीन भुवनके लोग उसके दास वन कर रहते हैं। धर्म, अर्थ, और काम" गृहस्थको अन्योन्य अप्रतिबन्धतया तीन वर्गकी साधना करनी चाहिये। इसलिये कहा है कि धर्मवर्ग-धर्मसेवन, अर्थवर्ग-व्यापार, कामवर्ग-सांसारिक भोगविलास, ये तीन पुरुषार्थ कहलाते हैं। इन तीनों वर्गोंको यथावसर सेवन करना चाहिये। सो बतलाते हैं --- उपरोक्त तीन वर्गोमें से धर्मवर्ग और अर्थवर्ग इन दोनोंको दूर रख कर एकले कामवर्ग का सेवन करने वाले तन्मय बन कर विषय सुखमें ललचाये हुए मदोन्मत्त जंगली हाथीके समान कौन मनुष्य आपत्तियों के स्थानको प्राप्त नहीं करता ? जिसे काममें-स्त्री सेवनमें अत्यन्त ललचानेकी तृष्णा होती है
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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