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________________ २६२ श्राद्धविधि प्रकरण धर्मकी मुख्यता रखनेसे ही सर्व प्रकारकी सिद्धिका सम्भव होनेके कारण, द्रव्य उपार्जन करके उद्यम करते समय भी यदि इसमेंसे अधिक लाभ होगा तो इतना द्रव्य सात क्षेत्रमेंसे अमुक अमुक खर्चनेकी आवश्यकता वाले अत्रोंमें खचूंगा। ऐसा मनोरथ करते रहना चाहिये कि जिससे समय २ पर महा फलकी प्राप्ति हुये बिना नहीं रहती। उच्च मनोरथ करना यह भाग्यशाली को ही बन सकता है, इसलिये शास्त्र कारोंने कहा है कि, चतुर पुरुषोंको सदैव ऊचे ही मनोरथ करते रहना चाहिये, क्योंकि, कर्मराज उसके मनोरथके अनुसार उद्यम करता है। स्त्री सेवनका, द्रव्य प्राप्त करनेका और यश प्राप्तिका किया हुवा उद्यम कदाचित् निष्फल हो जाय परन्तु धर्म कार्य सम्बन्धी किया हुवा संकल्प कभी निष्फल नहीं जाता। इच्छानुसार लोभ हुये बाद निर्धारित मनोरथ पूर्ण करने चाहिये। कहा है कि, व्यापारका फल द्रव्य कमाना, द्रव्य कमानेका फल सुपामें नियोजित करना है। यदि सुपात्रमें न खर्च करे तो व्यापार और द्रव्य दोनों ही दुःखके कारण बन जाते हैं। . यदि संपदा प्राप्त किये बाद धर्म सेवन करे तो ही वह धर्मऋद्धि गिनी जाती है और यदि वैसा न करे तो वह पाप ऋद्धि मानी जाती है। इसलिये शास्त्र में कहा है कि-धर्म रिद्धि, भोग रिद्धि, और पाप रिद्धि, ये तीन, प्रकारकी ऋद्धियां श्री वीतरागने कथन की हैं। जो धर्म कार्यमें खर्च किया जा सके वह धर्म ऋद्धि, जिसका शरीरके सम्बन्धमें उपभोग होता हो वह भोग ऋद्धि । दान, धर्म, या भोगसे जो रहित हो याने जो उपरोक्त दोनों कार्यों में न खर्चा जाय वह पाप ऋद्धि कहलाती है और वह अनर्थ फल देने वाली याने नीच गति देने वाली कही है। पूर्व भवमें जो पाप किये हों उसके कारण पाप ऋद्धि प्राप्त होती है या आगामी भवमें जो दुःख भोगना हो उसके प्रभावसे भी पाप ऋद्धि प्राप्त की जा सकती है। इस बातको पुष्ट करनेके लिए निम्न दृष्टान्त दिया जाता है। "पाप रिद्धि पर दृष्टान्त” वसन्तपुर नगरमें क्षत्रिय, विप्र; वणिक, और सुनार ये चार जने मित्र थे। वे कहीं द्रव्य कमानेके लिए परदेश निकले। मार्गमें रात्रि हो जानेसे वे एक जगह जंगलमें ही सो गये। वहां पर एक वृक्षकी शाखामें लटकता हुवा, उन्हें सुवर्ण पुरुष देखनेमें आया। (यह सुवर्ण पुरुष पापिष्ट पुरुषको पाप रिद्धि बन जाता है और धर्मिष्ट पुरुषको धर्म ऋद्धि हो जाता हैं ) उन चारों से एक जनेने पूछा क्या तू अर्थ है ? सुवर्ण पुरुषने कहा "हां! मैं अर्थ हूं। परन्तु अनर्थ कारी हूं।" यह बचन सुनकर दूसरे भय भीत होगये, परन्तु सुनार बोला कि यद्यपि अनर्थ कारी है तथापि अर्थ-द्रव्य तो है न! इसलिये जरा मुझसे दूर पड़। ऐसा कहते ही सुवर्ण पुरुष एकदम नीचे गिर पड़ा। सुनारने उठकर उस सुवर्ण पुरुषकी अंगुलियां काट ली और उसे वहां ही जमीनमें गढा खोदकर उसमें दबाकर कहने लगा कि, इस सुवर्ण पुरुषसे अतुल द्रब्य प्राप्त किया जा सकता है, इस लिए यह किसीको न बतलाना । बस इतना कहते ही पहले तीन जनोंके मनमें आशांकुर फूटे।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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