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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ___ यदि परमार्थसे विचार किया जाय तो द्रव्योपार्जन करनेमें न्याय ही सार है। वर्तमान कालमें प्रत्यक्ष ही देख पड़ता है कि यदि न्यायसे बड़ा लाभ हुवा हो उसमें से धर्मकार्य में खर्चता रहे, इससे वह कुवे. के पानीके समान अक्षयता को प्राप्त होता है। जैसे कुवेका पानी ज्यों ज्यों अधिक निकाला जाता है त्यों त्यों उसमें आय भी तदनुसार अधिक होती है वैसी ही नीतिसे कमाये हुए धनको ज्यों ज्यों धर्ममें खर्चा जाता है त्यों त्यों वह व्यापार द्वारा अधिक बृद्धिको प्राप्त होता है। पापी मनुष्यको ज्यों ज्यों अधिक लाभ होता है त्यों त्यों उसका मन खरचने के कारण खुट जानेके भयसे मारवाड़ में रहे हुए तलावका पानी ज्यों दिन प्रतिदिन सूकता जानेसे एक समय वह बिलकुल नष्ट हो जाता है, वैसे ही पापीका धन भी कम होनेसे एक समय वह सर्वथा नष्ट हो जाता है। क्योंकि उसमें पापकी अधिकता होनेसे क्षीणताका हेतु समाया हुवा है और न्यायवान् को धर्मकी अधिकता होनेसे प्रतिदिन प्रत्यक्ष ही बुद्धिका हेतु है। इसलिये शास्त्र में कहा है कि, जो घटीयन्त्र में छिद्र द्वारा पानी भरता है वह उसकी वृद्धि के लिये नहीं परन्तु उसे डुबानेके लिए ही भरता है। इस तरह बारंबार घटीयन्त्र को डूबना ही पड़ता है सो क्यो प्रत्यक्ष नहीं देखते ! ऐसे ही पापी प्राणीको जो जो द्रब्यकी प्राप्ति होती है वह केवल उसके पापपिण्ड की वृद्धिके लिए ही होती है परन्तु धर्मबृद्धि के लिये नहीं। इसी लिये एक समय उसे ऐसा भी देखना पड़ता है कि उसके किये हुए पापरूप घड़े के भर जानेसे एकदम उसका सर्वस्व नष्ट हो जाता है। ____यदि यहाँ पर कोई यह शंका करे कि जो मनुष्य न्यायसे ही धर्मरक्षण करके स्वयं अपना व्यवहार चलाता है वह अधिक दुःखित मालूम होता है, और जो कितने एक अन्यायसे द्रव्य उपार्जन करते हैं वे अधिक धन ऐश्वर्यता वाले दिनों दिन बृद्धि पाते हुए देख पड़ते हैं। इससे न्याय धर्मकी ही एक मुख्यता कहां रही ? इसका उत्तर यह है कि प्रत्यक्ष अन्याय हो वह करनेसे भी उसे धनकी बृद्धि होती मालूम देती है, वह उसे पूर्वभव में संचय किये हुए पुण्यका उदय करा सकता है, वह इस भवमें किये जाते अन्याय का फल नहीं। जो इस भवमें अन्याय करता है उसका फल आगे मिलनेवाला है। इस समय तो उसके पूर्वभव में किये हुए पुण्यका ही उदय है, वही उसे दिनोंदिन लाभ प्राप्त कराता है यह समझना चाहिये। इसलिये धर्मघोष सूरिने पुण्य पाप कर्मकी चौभंगी निम्न लिखे मुजब बतलाई है: १ पुण्यानुबन्धी पुण्य-जिसके उदयमें पुण्य बांधा जाय। २ पापानुबन्धी पुण्य-पूर्वकृत पुण्य भोगते हुये जिसमें पापका बन्ध हो। ३ पुण्यानुबन्धी पाप-पूर्वभव में किये पापका फल दुःख भोगते हुए जिसमें पुण्यका बन्ध हो। ४ पापानुबन्धी पाप-पूर्वकृत पाप फल भोगते हुए जिसमें पापका ही बन्ध हो। १ पूर्वभव में आराधन किये हुये जैनधर्म की विराधना किये बिना मृत्यु पाकर इस भवमें भी कष्ट न पा कर जो उदय आये हुए निरुपम सुखको भरतचक्रवती के समान भोगता हैं उसे पुण्यानुबन्धी पुण्य कहते हैं। २ पूर्वभव में किये हुए पुण्यके प्रभावसे निरोगी; रूपवान, कुलवान, यशवान् वगैरह कितने एक लौकिक गुण युक्त तथा जो इस लोकमें महान ऋद्धि वाला होता है, वह कौणिक राजाके समान पापानुबन्धी पुण्य भोगता है। एवं अचान कष्टसे भी पापानुबन्धी पुण्य भोगा जाता है। ३ जो मनुष्य पूर्वमव में
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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