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________________ Aamann श्राद्धविधि प्रकरण २५१ इन चार प्रकारके कुकर्मोको करने वाला नरफमें जा पड़ता है। जबतक चन्द्र, सूर्य हैं तबतक नरकके दुःख भोगता है। ३ यह तीसरा श्लोक सुनकर तीसरा अक्षर भूलकर राजकुमार सिर्फ 'रा' बोलने लगा। (३) हे राजन! यदि तू इस राजकुमारके कल्याणको चाहता हो तो सुपात्रमें दान दे क्योंकि गृहस्थ'दानसे ही शुद्ध होता है। ४ यह चतुर्थ श्लोक सुनकर राजकुमार सर्वथा स्वस्थ बन गया। फिर राजाने कुमारसे पूछा कि, तुझे क्या हुवा था, उसने सत्य घटना कह सुनायी । राजा पड़देमें रही हुई दीवानकी पुत्रीसे ( शारदासे) पूछने लगा कि हे बालिका! हे पुत्री! तू शहरमें रहती है तथापि वन्दर, व्याघ्र और राजकुमार का जंगलमें बना हुवा चरित्र तु किस प्रकार जान सकी ? पड़देमेंसे शारदानन्द बोला देव गुरुकी कृपासे मेरी जीभके अग्र भाग पर सरस्वती निवास करती है। इससे जैसे भानुमतीकी जंघा पर तिलको जाना वैसे ही यह वृन्तात मालूम होगया। यह सुन आश्चर्य चकित हो राजा बोला क्या शारदानन्द है ? उसने कहा कि हां ! राजा प्रसन्न हो पड़दा दुर कर शारदानन्दसे मिला और अपने कथनानुसार उसे अर्द्ध राज्य देकर कृतार्थ किया। इसलिये ऊपर मुजब विश्वासीको कदापि न ठगना। "पापके भेद" शास्त्रमें पापके भेद दो प्रकार कहे हैं, एक गुप्त और दूसरा प्रगट । प्रथम यहांपर प्रगट पापके दो भेद कहते हैं। प्रगट पाप दो प्रकारके हैं, एक कुलाचार और दूसरा निर्लज्ज । कुलाचार गृहस्थके किये हुए आरंभ समारंभको कहते हैं और निर्लज्ज साधुओंके वेशमें रहकर जीव हिंसादिक करनेको कहते हैं। निर्लज्ज याने यति साधुका वेष रखकर प्रगट पाप करें वह अनन्त संसारका हेतु है, क्योंकि वह जैन शासनके अपवादका हेतु हो सकता है इसलिये कुलाचार से प्रगट पाप करे तो उसका बन्ध स्वल्प होता है। अब गुप्त पापके भेद कहते हैं। ___गुप्त पाप भी दो प्रकारके हैं । एक लघु और दूसरा महत । उसमें लघु कम तोल या नाप वगैरहसे देना, और लघु विश्वासघात, कृतघ्न, गुरु द्रोही, देव द्रोही, मित्र द्रोही, बालद्रोही वगैरह २ समझना। गुप्त पाप दंभ पूर्ण होनेसे उससे कर्म बन्ध भी दूढ होता है । अब असत्य पापके भेद कहते हैं। ___मनसे असत्य, ववनसे असत्य, और शरीरसे असत्य, ये तीन महापाप कहलाते हैं। क्योंकि मन, बचन कायको असत्यतासे गुप्त ही पाप किये जा सकते हैं। जो मन, वचन, कायकी असत्यता का त्यागी है, वह कदापि किसी भी गुप्त पापमें प्रवृत्ति नहीं करता। जो असत्य प्रवृत्ति करता है उससे उसे निःशूकता धार्मिक अवगणना होती है । निःशूकतासे, स्वामि द्रोह, मित्र द्रोहादिक महापाप करता है। इसलिये योग शास्त्रमें कहा है कि एक तरफ असत्य सम्बन्धि पाप और दूसरी ओर समस्त पापोंको रस्त्र कर यदि केवलीकी बुद्धि रूप तराजुमें तोला जाय तो उन दोनोंमें से पहिला असत्यका पाप अधिक होता है। इस प्रकार जो असत्य मय गुप्त पाप है याने दूसरेको ठगने रूप पापको त्यागनेके लिये उद्यम करना योग्य है।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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