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________________ Anwinn श्राद्धविधि प्रकरण "अवश्य त्यागने योग्य महापाप" खामी द्रोह, मित्र द्रोह, विश्वास द्रोह, गुरु द्रोह, बृद्ध द्रोह, न्यासापहार–किसीकी धरोहर दबा लेना, उनके किसी भी कार्यमें विघ्न डालना, उन्हें किसी भी प्रकारका मानसिक, वाचिक और कायिक दुःख देना, उनकी घात चिन्तवना-घात करना या कराना, आजीविका भंग करना या कराना, वगैरह जो महा कुकृस्य हैं वे महा पाप बतलाये गये हैं । जो ऐसे कार्योंसे आजीविका चलाई जाती है वह प्रायः महापाप है। इसलिए उत्तम पुरुषणको वह सर्वथा त्यागने योग्य है। इस विषयमें कहा भी है कि झूठी गवाही देने वाला, बहुत समय तक किसी तकरारसे द्वेष रखने वाला, विश्वास घात करने वाला, और किये हुए गुणको भूल जाने वाला, ये चार जने कर्म चांडाल कहलाते हैं। इसमें इतना विशेष समझना भंगी चमार, आदि जाति वांडा. लोंकी अपेक्षा कर्म चांडाल अधिक नीच होता है, इसलिए उसका स्पर्श करना भी योग्य नहीं। "विश्वासघात पर दृष्टान्त" विशाल नगरीमें नन्द राजा राज्य करता था। उसे भानुमति नामा रानी, विजयपाल नामक कुमार, और बहुश्रुत नामक दीवान था। राजा रानीपर अत्यन्त मोहित होनेसे उसे साथ लेकर राजसभा में बैठा करता था। यह अन्याय देखकर दीवानको एक नीतिका श्लोक याद भाया कि "तद्यथा वेद्यो गुरुश्च मंत्री च यस्य राज्ञप्रियंवदाः॥ शरीरधर्मकोशेभ्यः, तिम सपरिहीयते ॥” .. वैद्य, गुरु, और दीवान् , जिस राजाके सामने ये मीठा बोलने वाले हों उस राजाका शरीर धर्म और भाण्डार सत्वर नष्ट होता है। इस नीति वाक्यके याद आने पर दीवान कहने लगा-“हे राजेन्द्र ! रानीको पासमें बैठाना अनुचित है। क्योंकि नीति शास्त्रमें कहा है कि राजा; अग्नि, गुरु, और स्त्री इन चारोंको यदि अति नजीक रक्खा हो तो विनाश कारी होते हैं और यदि अति दूर रख्खे हों तो कुछ फलीभूत नहीं होते। इसलिए इन चारको मध्यम भावसे सेवन करना योग्य है । अतः आपको रानीको पास रखना उचित नहीं। यदि आपका मन मानता ही न हो तो रानीके रूपका चित्र पास रख्खा कर । राजाने भी वैसा ही किया। उसने रानीका चित्र तैयार कराकर शारदानन्द नामक अपने गुरुको बतलाया। उसने अपना विज्ञान बतला. नेके लिये कहा कि, रानीकी बाई जंघा पर तिल है, परन्तु उसका दिखाव इस चित्रमें नहीं बतलाया गया। इस चित्रमें बस इतनी ही त्रुटि रह गई है। मात्र इतने ही बचनसे रानीके विषयमें राजाको शंका पड़नेसे सारदानन्दको मार डालनेका दीवानको हुक्म फर्माया। शारदानन्दको सरस्वतीका घरदान होनेसे उसमें गुप्त बातें जाननेकी शक्ति थी, परन्तु राजाको यह बात मालूम न होनेसे उसने सशंकित हो इस प्रकारका हुक्म किया था। दीर्घदृष्टि वाले दीवानने नीति शास्त्रके वाक्यको याद किया कि “जो कार्य करना हो उसमें शीघ्रता न करनी और जिस कार्यको करने में लम्बा विचार न किया हो उसमेंसे बड़ी आपदा मा पड़ती है। २२
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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