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________________ श्राद्ध विधि प्रकरण भी प्रसंग आवे । परन्तु इसका भावार्थ यह था कि जहां अपना आदर बहुमान हो वहां भोजन करना क्योंकि भोजनमें आदर ही मिठास है अथवा संपूर्ण भूख लगे तब ही भोजन करना। बिना इच्छा भोजन करनेसे अजीर्ण रोगकी बृद्धि होती है । सुख करके सोना सो प्रतिदिन सो जाने के लिए नहीं कहा था परन्तु निर्भय स्थानमें ही आकर सोना । जहां तहां जिस तिसके घर न सोना । जागृत रहनेसे बहुत लाभ होते हैं । सम्पूर्ण निद्रा आवे तव ही शय्यापर सोने के लिए जाना क्योंकि, आंखोंमें निद्रा आये बिना सोनेसे कदाचित् मन चिन्तामें लग जाय तो फिर निद्रा आना मुष्किल होता है, और चिन्ता करनेसे शरीर व्यथित हो दुर्बल होता है इसलिये वैसा न करना । या जहां सुखसे निद्रा आवे वहां पर सोना यह आशय था। ६ हरएक गांवमें घर करना जो कहा है उसमें यह न समझना चाहिये कि गांव २ में जगह लेकर नये घर बनवाना। परन्तु इसका आशय यह है कि, हरएक गांवमें किप्ती एक मनुष्यके साथ मित्राचारी रखना। क्योंकि किसी समय काम पड़ने पर वहां जाना हो तो भोजन, शयन वगैरह अपने घरके समान सुख पूर्वक मिल सके। ७ दुःख आने पर गंगा किनारे खोदना जो बतलाया है सो दुःख पड़नेपर गंगा नदी पर जानेकी जरूरत नहीं परन्तु इसका अर्थ यह है जब तेरे पास कुछ भी न रहे तब तुम्हारे घरमें रही हुई गंगा नामक गायको बांधनेका स्थान खोदना । उस स्थानमें दबे हुये धनको निकाल कर निर्वाह करना। ____शेठके उपरोक्त वचन सुन कर वह मुग्ध्र आश्चर्यमें पड़ा और कहने लगा कि, यदि मैंने प्रथमसे ही आप को पूछ कर काम किया होता तो मुझे इतनी विडम्बनायें न भोगनी पड़तीं। परन्तु अब तो सिर्फ अन्तिम ही उपाय रहा है । शेठ बोला-'खेर जो हुवा सो हुवा परन्तु अबसे जैसे मैंने बतलाया है वैसा बर्ताव करके सुखी रहना । मुग्ध वहांसे चल कर अपने घर आया और अपने पुराने घरमें जहां गंगा गायके बांधनेका स्थान था वहां बहुतसा धन निकला जिससे वह फिर भी धनाढ्य बन गया। अब वह पिताकी दी हुई शिक्षाओंके अभि. प्राय पूवक बर्तने लगा। इससे वह अपने माता पिताके समान सुखी हुवा। उपरोक्त युक्ति मुजब किसीको भी उधार न देना। यदि ऐसा करनेसे निर्वाह न चले याने उधार व्यापार करना पड़े तो जो सत्यवादी और विश्वासपात्र हो उसीके साथ करना। सूदका व्यापार भी माल रख कर या गहना रख कर ही करना, अंग उधार न करना। व्याजमें भी देश, कालकी अपेक्षा ( वार्षिक वगैरह जो मुद्दतकी हो उसका सैकडे ) एक, दो, तीन, चार, पांच आदि द्रव्यकी वृद्धि लेनेका ठराव करके द्रव्य देना । लोक व्यवहार के अनुसार ब्याज लेना, लोग निन्दा करें वैसा व्याज न लेना । ब्याज लेने वालेको भी ठरावके अनुसार उचित समय पर आ कर वापिस समर्पण करना, क्योंकि वचनका निर्वाह करनेसे ही पुरुषोंकी प्रतिष्ठा और बहुमान होता है; इसलिये कहा है कि,: तत्तिमित्तं जपह। जित्तिम मित्तस्स निव्ययं वहद ॥ तं उख्खिवेह भारं । अपहे जं न छंडेह ॥ सिर्फ उतना ही वचन बोलना कि जितना पाला जा सके। उतना ही भार उठाना कि जो आधे रास्तेमें उतारना न पड़े।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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