SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राद्धविधि प्रकरण .... द्रव्यशुद्धि--पन्द्रह कर्मादान के व्यापार का, पन्द्रह कर्मादान के कारणरूप क्रयाणेका व्यापार सवथा त्यागना। क्योंकि, शास्त्र में कहा है कि धर्मवाधाकरं यच्च । यच्च स्यादयशस्करं ॥ भूरि लाभ परिग्राह्य । पण्यं पुण्यार्थिभिन तत् ॥ "जिस व्यापारसे धर्मका बचाव न हो तथा अपकीर्ति हो वैसा करियाना माल, यदि अधिक लाभ होता हो तथापि पुण्यार्थी मनुष्यको न लेना चाहिये । ऐसे करियानेका व्यापार श्रावकको सर्वथा न करना चाहिए । तैयार हुये वस्त्रका, सूतका, द्रब्यका, सौनेका चांदी वगैरहका व्यापार विशेषतः निर्दोष होता है तथापि उस प्रकारके व्यापारमें ज्यों अधिक आरंभ न हो त्यों उद्यम करना। ___ अकाल वगैरहके कारण हों और अन्यसे निर्वाह न हो तो अधिक आरंभ वाले या पन्द्रह कर्मादान के व्यापार करनेकी आवश्यकता पड़े तथापि अनिच्छासे, अपने आत्माकी निन्दा करनेसे और वारंवार खेद करने पूर्वक करे । परन्तु निर्दय होकर जैसे चलता है वैसे चलने दो इस भावसे न करे । इसलिए भाव श्रावकके लक्षण बतलाये हुए कहा है कि,: वजई तिव्वारम्भं । कुणई अकाम अनिन्धतो उ॥ भुणई निरारम्भजणं । दयालु ओ सव्वजीवेसु ॥१॥ धन्ना हु महामुणिणो । मणसावि करन्ति जे न परपीडं ॥ प्रारम्भ पोय विरया। भुजंति तिकोडि परिसुद्ध॥२॥ बहुत आरंभ वाला ब्यापार न करे, पन्द्रह कर्मादान का व्यापार न करे, यदि दूसरे किसी ब्यापारसे निर्वाह न हो तो कर्मादान का ब्यापार करे परन्तु निरारम्भी व्यापार करने वालोंकी स्तुति करे और सर्व जीवों पर दयावान होकर ब्यापार चलावे । परन्तु दया रहित होकर ब्यापार न करे। तथा ऐसा विचार करे कि, धन्य है उन महामुनियों को कि, जो मनसे भी पर जीवको पीड़ा कारक विचार तक नहीं करते। और सर्व पाप ब्यापारसे रहित होकर मन, वचन, कायसे बने हुए पापसे रहित तीन कोटी विशुद्ध ही आहार ग्रहण करते हैं। निम्न लिखे प्रकारका ब्याख्यान करना । __ न देखे हुए, परीक्षा न किये हुए मालका व्यापार न करना । तैयार हुए, परीक्षा किये हुए मालको खरीदना परन्तु शंकावाला वायदेवाला माल न खरीदना, तथापि यदि वैसा खरीदनेकी जरूरत पड़े तो अकेले नहीं परन्तु वहुतसे जने हिस्सेदार हो कर खरीदना । क्योंकि इकले द्वारा रखनेसे कदाचित् ऐसी हरकत भोगनी पड़े कि, जिससे आबरूका धक्का पहुचे । यदि सबके हिस्सेमें वैसा माल खरीदा हो तो उसमें सबकी सहायता होनेसे उतनी हरकत आनेका संभव नहीं; और यदि कदाचित् हरकत भोगनी पड़े तथापि बहुतसे हिस्सेदार होनेसे वह स्वयं हंसीका पात्र नहीं बनता । इसलिये कहा है कि ऋयाणाकेश्वदृष्टेषु । न सत्यंकारमर्पयेत् ॥ दद्याच बहुभिः साद्ध । पिच्छेबपी वणिग्यदि।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy