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________________ श्राद्धविधि प्रकरण मधू नामक दैत्यका मथन करने वाले कृष्णके बक्षस्थल पर लक्ष्मी नहीं वसती, तथा कमलाकर-पद्मसरोबरमें भी कुछ लक्ष्मी निवास नहीं करती, तब फिर कहां रहती है ? पुरुषोंके व्यवसाय-व्यापार रूप समु द्रमें लक्ष्मीके रहनेका स्थान है। व्यापार करना सो भी १ सहाय कारक, २ पूंजी, ३ बल हिम्मत ४ भाग्योदय, ५ देश, ६ काल, ७ क्षेत्र, वगैरहका बिचार करके करना। प्रथमसे सहाय कारक देखकर करना, अपनी पूंजीका बल देखकर, मेरा भाग्योदय चढ़ता है या पड़ता सो विचार करके, उस क्षेत्रको देखकर, इस देश में इस अमुक व्यापारसे लाभ होगा या नहीं इस बातका विचार करके, तथा काल, देखके - जैसे कि, इस काल में इस व्यापारसे लाभ होगा या नहीं इसका बिचार करके यदि व्यापार किया तो लाभकी प्राप्ति हो, और यदि बिना बिचार किये किया जाय तो लाभके बदले जरूर अलाभकी प्राप्ति सहन करनी पड़े। इस विषयमें कहा है कि,: स्वशक्त्यानुरूपं हि । प्रकुर्यात्कार्यमार्यधीः॥ नो चेद सिद्धि हीहास्य । होला श्री वलहानयः॥॥ आर्य बुद्धिवान् पुरुष यदि अपनी शक्ति के अनुसार कुछ कार्य करता है तो उस कार्यकी प्रायः सिद्धि हो ही जाती है और यदि अपनी शक्तिका विचार किये बिना करे तो लाभके बदले हानि ही होती है। लज्जा आती है, हंसी होती है, निन्दा होती है, यदि लक्ष्मी हो तो वह भी चली जाती है, बल भी नष्ट होता है। विचार रहित कार्य में इत्यादिकी हानि प्रगटतया ही होती है। अन्य शास्त्रमें भी कहा है कि कोदेशः कानि मित्राणि। कः कालः को व्ययागमौ ॥ कश्चाहं का च मे शक्ति। रिति चिंत्यं मुहुर्मुहुः ॥२॥ कौनसा देश है ? कौन मित्र हैं ? कौनसा समय है ? मुझे क्या आय होती है ? और क्या खर्च ? मैं कौन हूं ? मेरी शक्ति क्या है ? मनुष्यको ऐसा विचार बारम्बार करना चाहिये। लघुथ्थानान्य विघ्नानि । सम्भवत्सा धनानि च ॥ कथयन्ति पुरः सिद्धिः। कारणान्येव कर्मणां॥ प्रारम्भमें व्यापारका छोटा डौल रख कर जब उसमें कुछ भी हरकत न हो तब फिर उसमें सम्भावित बड़े ब्यापारका स्वरूप लावे । व्यापारमें लाभ प्राप्त करनेका यही लक्षण है। याने जिस व्यापारके जो कारण हैं यही कार्यकी सिद्धिको प्रथमसे ही मालूम करा देते हैं कि, यह कार्य सफल होगा या नहीं? उद्भवन्ति विना यत्न। मभवन्ति च यत्नतः॥ लक्ष्मीरेव समाख्याति। विशेष पुण्यपापयोः॥ लक्ष्मी कहती है कि मैं पुण्य पापके स्वाधीन हूं। याने उद्यम किये बिना ही मैं पुण्यवानको आ मिलती हू, भौर पापीके उद्यम करने पर भी उसे नहीं मिल सकती (पुन्यके उदयसे में आती है, और पापके उदयसे जाती हू) व्यापारमें निम्न लिखे मुजब ब्यवहार शुद्धि रखना चाहिये। व्यापार करनेमें चार प्रकारसे जो व्यवहार शुद्धि करनी कहा है उसके नाम ये हैं-१ म्यशुद्धि, २ क्षेत्रशुद्धि, ३ कालशुद्धि, ४ भावशुद्धि।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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