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________________ १२ श्राद्धविधि प्रकरण विदा करनेकी तैयारी अपनी रीत रिवाजके अनुसार जल्दी ही करनी चाहिये। क्योंकि मैं अपने राज्यको नाही छोड़कर आया हूं अतः मुझे सत्वर ही बिदा करो। ऋषिजी बोले राजन् ! जंगलमें निवास करनेवाले और दिगम्बर धारण करनेवाले ( दिशारूप वस्त्र पहनने वाले ) हम आपको विदा करनेकी क्या तैयारी करें ? कहां आपका दिoid और कहां हमारा वनवासी वल्कल परिधान ? (वृक्षोंकी छालका वेष ) । राजन् ! इस हमारी कमलमाला कन्या ने जन्म धारण कर के आज तक यह तापसी प्रवृत्ति ही देखी है। आश्रम के वृक्षों का सिंचन करने के सिवाय यह बिचारी अन्य कोई कला नहीं जानती । मात्र आप पर एक निष्ट स्नेह रखने वाली यह जन्म से ही सरल हृदया - निष्कपटी और मुग्धा है । राजन् ! मेरी इस प्राणाधिका कन्या को सपत्नीतुम्हारी अन्य स्त्रियोंकी तरफ से किसी प्रकार का दुःख न होना चाहिये । राजा बोला महर्षिजी ! इस भाग्यशाली को सपत्नीजन्य जरा भी दुःख न होने दूंगा और मैं स्वयं भी कभी इस देवी का वचन उल्लंघन न करूंगा। यहां पर तो मैं एक मुसाफिर के समान हूं इसलिये इस के वस्त्राभूषण के लिये कुछ प्रबन्ध नहीं कर सकता परन्तु घर जा कर इस के सर्व मनोरथ पूर्ण कर सकूंगा । के इस प्रकार - राजा के ये बचन सुन कर गांगील महर्षि खेदपूर्वक बोल उठा कि धिक्कार है मुझसे दरीद्री को जो कि जन्मदरीद्री के समान पहले पहल ससुराल भेजते वक्त अपनी पुत्री को वस्त्रवेष तक भी समर्पण नहीं कर सकता है ? इतना बोलते हुए ऋषिजीके नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी। इतने में ही पासके एक आन वृक्ष से सुन्दर रेशमी वस्त्र एवं कीमती आभूषणोंकी परम्परा मेघधारा समान पड़ने लगी । चमत्कार देख कर ऋषिजी को अत्यन्त श्रर्य पूर्वक निश्चय हुआ कि सचमुच इस उत्कृष्ट भाग्यशालिनी कन्या के भाग्योदय से हो इस की भाग्यदेवी ने इसके योग्य वस्तुओंकी वृष्टि की है। कदाचित फल दे सकते हैं, मेघ कदाचित् ही याचना पर वृष्टि कर सकते हैं, परन्तु यह कैसा अद्भुत किं इस भाग्यशाली कन्या के भाग्योदय से वृक्ष भी वस्त्रालङ्कार दे रहा है । धन्य है इस कन्या के सद्भाग्य को! सत्य है जो महर्षियोंने फरमाया है कि भाग्यशालियोंके भाग्योदयसे असम्भवित भी सुसंभवित हो जाता है। जैसे कि रामचन्दजी के समय समुद्र में पत्थर भी तैर सकता था, तो फिर कन्या के पुण्यप्रभाव से वृक्ष वस्त्रालंकार प्रदान करे इसमें विशेष आश्चर्य क्या है ? इसके बाद हर्ष प्राप्त हुए महर्षि के साथ कमल- ' माला सहित राजा जिन मन्दिर में गया और जिनराज को विधिपूर्वक वन्दन कर इस प्रकार प्रभु की स्तवना करने लगा “हे प्रभो ! जैसे पाषाण में खुदे हुये अक्षर उस में स्थिर रहते हैं वैसे ही आप का स्वरूप मेरे हृदय में स्थिर रहा हुआ है। अतः हे परमात्मन् आपका पवित्र दर्शन पुनः सत्वर हो ऐसी याचना करता हूँ" । इस प्रकार प्रथम तोर्थपति को सविनय वन्दन स्तवन कर कमलमाला सहित राजा मंदिर से बाहर आकर ऋषिजी से बोला कि अब मुझे रास्ता बतलावें । ऋषिजी बोले - राजन् तुम्हारे नगर का रास्ता मुझे मालूम नहीं है ? राजा बोला कि हे देवर्षि ? यदि आप मेरे नगर का मार्ग तक नहीं जानते तो मेरा नामादिक आप को कैसे मालूम हुआ ? ऋषि बोला कि यदि इस बात को जानना हो तो राजन् सावधान होकर सुन- एक दिनका जिकर है कि मैं इस अपनी नवयोवना कन्या को देख कर विचार में पड़ा था कि इस अद्भुत रूपवती फलदायक वृक्ष आश्चर्य है
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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