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________________ AAAAAA श्राद्धविधि प्रकरणे पण्यानां गांधिकं पण्यं । किमन्यैः कांचनादिकैः॥ यत्रेकेन गृहीतेना। तत्सहस्रण दीयते ॥ क्रयानेमें करियाना पन्सारीपन का हो प्रशंसाके योग्य है। सुवर्ण, चांदी वगैरहसे क्या लाभ है ? क्योंकि, जो पन्सारीका क्रयाणा एक रुपयेमें लिया हो वह हजारमें बेचा जा सकता है; वैद्य और पन्सारी के व्यापार पर यद्यपि उपरोक्त विशेष लाभ है तथापि अध्यवसाय की मलीनता के कारणसे वह दूषित तो है ही अर्थात् उस धन्देमें अध्यवसाय खराब हुए विना नहीं रहता । कहा है कि,: विग्रहपिच्छन्ति भट्टाः । वैद्याश्च व्याधिपीडितलोकं ॥ मृतकबहुलं विषा । क्षेपसुभिक्षं च निग्रथाः॥ सुभट लोग लड़ाईको, वैद्य लोग व्याधिसे पीड़ित हुए मनुष्योंको, ब्राह्मण लोग श्रीमन्तोंके मरणको और निग्रंथ मुनि जनताकी शांति एवं सुकालको इच्छते हैं। यो व्याधिभिर्ध्यायति वाध्यमानं । जनौद्यमादातुमना धनानि ॥ व्याधिन विरुद्धौषधतोस्यद्धि । नयेकृपा तत्र कुतोस्तु वैद्य ॥ जो व्याधि पोड़ित मनुष्योंके धनको लेना चाहता है तथा जो पहले रूपको शांत करके फिर विपरीत औषध दे कर रोगकी वृद्धि करता है ऐसे वैद्यके व्यापारमें दयाकी गन्ध भी नहीं होती। इसी कारण वैद्य व्यापार कनिष्ट गिना जाता है। ___ तथा कितने एक वैद्य दीन, होन, दुःखी भिक्षुक, अनाथ लोगोंके पाससे अथवा कष्टके समय अत्यन्त रोग पीड़ितसे भी जबरदस्ती धन लेना चाहते हैं एवं अभक्ष्य औषध वगैरह करते हैं या कराते हैं। औषध तयार करने में बहुतसे पत्र, मूल, त्वचा, शाखा, फूल, फल, वीज, हरीतकाय, हरे और सूखे उपयोगमें लेनेसे महा आरंभ समारंभ करना पड़ता है। तथा विविध प्रकारकी औषधोंसे कपट करके वैद्य लोग बहुतसे भद्रिक लोगोंको द्वारिका नगरीमें रहने वाले अभव्य वैद्य धन्वन्तरी के समान बारंबार उगते हैं। इसलिए यह ब्यापार अयोग्यमें अयोग्य है । जो श्रेष्ठ प्रकृति वाला हो, अति लोभी न हो, परोपकार बुद्धि वाला हो, ऐसे चैद्यकी वैद्य विद्या, श्री ऋषभदेवजी के जीव जीवानन्द वेद्य के समान इस लोक और परलोक में लाभ कारक भी होती है। खेती बाड़ीकी आजीविका-वर्षाके जलसे, कुवेके जलसे, वर्षा और कुवेके पानीसे ऐसे तीन प्रकार की होती है। वह आरम्भ समारम्भ की बहुलता से श्रावक जनोंके लिए अयोग्य गिनी जाती है। चौथी पशुपालसे आजीविका-गाय, भैंस, बकरियां, भेड़, ऊंट, बैल, घोड़े, हाथी वगैरहसे आजीविका करना वह अनेक प्रकारकी हैं। जैसी २ जिसकी कला बुद्धि वैसे प्रकारसे वह बन सकती है। पशुपालन और कृषि, ये दो आजीविकायें विवेकी मनुष्यको करनो योग्य नहीं । इसके लिए शास्त्रमें कहा है कि,: रायाणं दतिद'ते । वइल्ल खंधेसु पापर जणाणं ।। सुहडाण मंडलम्गे । वेसाणं पोहरे लच्छी॥
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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