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________________ श्रीद्धविधि प्रकरणे २०१ पाहज्ज ॥" जो अक्रियावादी है वह भवी भी होता है और अभवी भी। परन्तु निश्चयसे कृष्ण पक्षीय गिना जाता है। क्रियावादी तो निश्चयसे भवी ही कहा है। निश्चयसे शुक्ल पक्षीय ही होता है और सम्यक्त्वी हो या मिथ्यात्वी, परन्तु अर्धपुग्दल परावर्त में ही वह सिद्धि पदको प्राप्त होता है । इसलिये क्रिया करना श्रेयस्कारी है।हान रहित क्रिया भी परिणाममें फलदायक नहीं निकलती। जिसके लिए कहा है कि,:-- अन्नाण कम्पख्खयो। जयई मंडुक चुन्नतुल्लशि॥ सम्पकिस्मिाई सो पुण। नेमो तच्छार सारिच्छो॥१॥ ... अमानसे कर्म क्षय हुवा हो वह मंडूकके चूर्ण सरीखा समझना । जैसे कोई मेंडक मरकर सूक गया हो तथापि उसके कलेवरका जो चूर्ण किया हो तो उससे हजारों मेंडक हो सकते हैं। उस चूर्णको पानीमें डालने से तत्काल ही हजारों मेंडक उत्पन्न हो जाते हैं। याने अज्ञानसे कर्मक्षय हो उसमें भव परंपरा बढ़ जाती है। और सम्यक् शान सहित जो क्रिया है वह मेंडकके चूर्णकी राख समान है (याने उससे फिर भव परंपरा की वृद्धि नहीं हो सकती) . जं अन्नाणी कम्मं । खवेई बहु चाहिं वासकोडिहिं॥ तं नाणी तिहिंगुत्तो। खबेई उसास मित्रेण ॥२॥ __ अज्ञानी जितने कर्म करोडों वर्ष तक तप करनेसे नष्ट करता है उतने कर्म मन, वचन, कायाकी गुप्तिवाला शानी एक श्वासोच्छ्वास में नष्ट कर देता है । इसीलिए तांवली पूर्णादिक तापस वगैरहको बहुतसा तप क्लेश करने पर भी ईशानेन्द्र और चमरेन्द्रत्व रूप अल्प ही फलकी प्राप्ति हुई। एवं श्रद्धा विना कितने एक झान पाले अंगार मर्दकाचार्यके समान सम्यक् क्रियाकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती इसलिये कहा है कि,:-.. .: अबस्य शक्तिरसमर्थविधेर्निबोध । स्तौचारु चेरियमनूतुदतीन किंचित् ॥ ___अाहि हीनहतवांछित मानसानां । दृष्टानु जातु हितत्तिरनंतराया ॥१॥ ... : अक्षानकी अन्धेकी शक्ति-क्रिया और असमर्थ पराक्रम वाले पंगूका ज्ञान, यदि इन दोनोंका मिलाप हो तो उन्हें इच्छित नगरमें जा पहुंचनेके लिये कुछ भी हरकत नहीं पड़ती। परन्तु अकेले अन्धक द्वारा मनोवांछित पूर्ण होने में कुछ भी हरकत हुये बिना वे अपने इच्छित स्थान पर जा पहुंचे हों ऐसा कही भी देखनेमें नहीं आता। यहां पर अन्ध समान क्रिया और पंग समान ज्ञान होनेसे दोनोंका संयोग होने पर ही इच्छित स्थान पर जाया जा सकता है। एवं ज्ञान और क्रिया इन दोनोंका संयोग होनेसे ही मोक्ष पदकी प्राप्ति होती है । अकेले शानसे या क्रियासे मोक्ष पदकी प्राप्ति नहीं हो सकती। ऊपर बतलाये हुये कारणके अनुसार ज्ञान, दर्शन समकित और चारित्र इन तीनोंका संयोग होनेसे ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । इसलिये उन तीनोंकी आराधना करनेका उद्यम करना। "साधुको सुख साता पूछना तथा वोहरानावगैरह" ...... इस प्रकार गुरुकी वाणी सुनकर उठते समय साधुके कार्यका निर्वाह करने वाला प्रावक यों पूछे कि,
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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