SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राद्धविधि प्रकरण स्थान वगैरहका भी कुछ निश्चित नहीं है वहां जानेके लिये सत्पुरुष एकाएक कदापि प्रवृत्ति न करे। आगे जाते हुये अटवीके मध्यमें सूर्यकी किरणोंसे मनोहर झलकता हुआ कलश वाला और मेरुपर्वतकी टोचके समान तुंग शिखर वाला तथा दर्शन मात्रसे कल्याण करने वाला रत्नजडित सुवर्ण मय एक गगनचुंबी जिनमन्दिर देखनेमें आया, जिसमें कि देवाधिदेव सर्वज्ञ श्री आदीश्वर भगवानकी मूर्ति विराजमान थी। उस मन्दिरके मनोहर शिखर पर बैठ कर शुकराज मधुरवाणीसे बोलने लगाः___ हे राजन् ! आजन्मकृत पापशुद्धिके लिये मंदिरमें विराजमान देवाधिदेवको नमस्कार कर। राजाने ये बचन सुन कर शुकराजके उड़जानेके भयसे घोड़े पर चढ़े हुवेही सर्वज्ञदेवको भावसहित नमस्कार किया। राजा के मनोगत भावको जानकर उस परोपकारी दिव्य शुकराजने जिनप्रासादके शिखरसे उड़कर मंदिरमें प्रवेश किया और प्रभुकी प्रतिमाको वन्दन किया। यह देख राजा भी घोड़ेसे नीचे उतरा और शुकराजके पीछे पीछे मंदिर में जाकर प्रभुकी रत्नमयी मूर्तिको नमस्कार कर स्तुति करने लगा कि हे परमात्मन् ! एकतो मुझे दूसरे कार्य की जल्दी है और दूसरे आपके गुणोंकी संपूर्ण स्तुति करनेकी मुझमें निपुणता नहीं है इसलिये आपकी मक्तिमें आसक्त होकर मेरा वित्त हिंडोलेके माफक डोलायमान हो रहा है, तथापि जैसे एक मच्छर अपनी शक्तिके अनुसार अनन्त आकाशमें उड़नेका उद्यम करता है वैसेही मैं भी यथा शक्ति आपकी स्तवना करनेके लिये प्रवर्तमान होता हूं। "अगणित सुखके देनेवाले हे प्रभु! गणना मात्रसे सुख देनेवाले कल्पवृक्षादि की उपमा आपको कैसे. दीजाय ? आप किसी पर भी प्रसन्न नहीं होते और न किसीको कुछ देते तथापि हे महाप्रभो ! सब सेवक आपकी सेवा करते हैं, अहो कैसी आश्चर्य कारक आपकी रीति है ! आप ममता रहित होने पर भी जगत्त्रयके रक्षक हो। निःसंगी होनेपर भी आप जगत्के प्रभु हैं अतः हे प्रभो! आप लोकोत्तर स्वरूप हो। हे रूपरहित परमात्मन् ! आपको नमस्कार हो!" कानाको सुधाके समान प्रभुकी उदारभावसे पूर्ण स्तुतिको सुनकर मंदिर के समीपवत्ती आश्रममें रहने वाला गांगील नामक महर्षि आश्रम से बाहर निकला। वह लंबी जटावाला, वृक्ष की छाल पहनने वाला और एक मृगचर्म धारण करनेवाला गांगील महर्षि अपने आश्रम से निकल कर बड़ी त्वरा से जिन मंदिरमें भाया और ऋषभदेव स्वामीकी प्रतिमाको भावसहित वन्दन कर अपने भावोल्लास से तुरंत निर्माण की हुई गद्यात्मक अठारह दूषणोंसे रहित श्री जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति करने लगा। ___ "तीन भुवनमें एकही अद्वितीयनाथ, हे प्रभो आप सर्वोत्कृष्ट रहो। जगत्त्रयके लोगों पर उपकार करने में समर्थ होने पर भी अनन्तातिशयकी शोभासे आप सनाथ हैं। नाभीराजाके विशाल कुलरूप कमलको विकसित करनेके लिये तथा तीन भुवनके लोकों द्वारा स्तवनाके योग्य मनोहर श्री मारुदेवी माताकी कुक्षीरूप सरोवर को शोभायमान करनेके लिये आप राजहंस के समान हैं। तीनलोकके जीवोंके मनको शोकांधकारसे रहित करनेके लिये हे भगवान् आप सूर्यलमान हैं, सर्व देवोंके गर्वको दूर करनेमें समर्थ ऐसी निर्मल अद्वितीय मनोहर महिमारूप लक्ष्मीको विलास करनेकेलिये कमलाकर (सरोवर) समान हे प्रभो ? आप जयवन्ते रहो । आस्तिक्य
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy