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________________ श्राद्धविधि प्रकरण १७५ गहना रखकर ही ब्याज पर दिये हुये देवद्रव्य की वृद्धि करना उचित है परन्तु वगैर गहना रक्खे देना उचित नहीं । तथा सम्यक्त्व पच्चीसीकी वृत्तिमें आई हुई शंका शेठकी कथामें भी गहने पर ही देवदव्य वृद्धि करना लिखा है। "देवद्रव्य भक्षण करने पर सागरशेठका दृष्टान्त" साकेत नगरमें सागर शेठ नामक परम दृढधर्मी श्रावक था, उसे उस गांवके अन्य सब श्रावकोंने मिलकर कितनाएक देवद्रव्य दिया और कहा कि, मन्दिरका काम करने वाले सुतार, राज, मजदूरोंको इस द्रव्यमेंसे देते रहना और उसका हिसाब लिखकर हमें बतलाना। अब सागर शेठ लोभान्ध होकर सुतार वगैरहको रोकड़ा द्रव्य न देकर देव द्रव्यके पैसेसे सस्ता मूल्यवान् धान्य, घी, गुड़, तेल, वस्त्र वगैरह खरीदकर देता हैं और बीचमें लाभ रहे वह अपने घरमें रख लेता है। ऐसा करनेसे एक रुपयेकी अस्सी काकनी होती हैं, ऐसी एक हजार कांकनियों का लाभ उसने अपने घरमें रख्खा । फक्त इतने ही देवद्रव्य के उपभोग से उसने अत्यन्त घोरतर दुष्कर्म उपार्जन किया। उस दुष्कर्मकी आलोचना किये बिना मृत्यु पाके वह समुद्रमें जल मनुष्य तया उत्पन्न हुवा । वहाँपर लाखों जल जन्तुओंका भक्षण करता रहनेसे उन जल जन्तुओंके वचावके लिए और उस जलचर मनुष्यके मस्तकमें रहे हुये एक गोली रूप रत्नको लेनेके लिए उसे बहुतसे प्रपंच द्वारा पकड़ कर समुद्रके किनारे रहने वाले परमाधामी के समान निर्दय लोगोंने एक बड़ी वज्रके जैसी कठिन चक्कीमें डालकर कोल्हूके समान पीलनेसे उत्पन्न होती हुई अत्यन्त वेदनाको भोगकर मरण पाकर अन्तमें वह तीसरे नरकमें नारकी उत्पन्न हुवा । वेदान्तमें कहा है कि, देवद्रव्येण या वृद्धि । गुरुद्रव्येण यद्धनं ॥ तड्नं कुलनाशाय मृतोऽपि नरकं व्रजेत् ॥ देव द्रव्यसे जो अपने द्रव्यकी वृद्धि करता है और गुरु व्यका जो अपने घरमें संचय करता है, यह दोनों प्रकारका धन कुलका नाश करने वाला होनेसे यदि उसका उपभोग करे तो वह मरकर भी नरकमें ही पैदा होता है। फिर उस सागर शेठका जीव नरकमें से निकल कर बड़े समुद्र में पांच सौ धनुष्य प्रमाण बड़े शरीर वाला मत्स्य तया उत्पन्न हुवा। उसे मछयारे लोकोंने पकड़ कर उसका अंगोपांग छेदन कर उसे महा कदर्थना उपजाई । उसे बड़े कष्टसे सहन कर मरण पाकर अन्तमें वह चौथी नरकमें नारकीयता उत्पन्न हुवा। इस अनुक्रम से बीचमें एकेक तिर्यचका भव करके पांचवीं, छटी, और सातवीं नरकमें दो २ दफा उत्पन्न हुवा। फिर देवद्रव्य का मात्र एक हजार कांकनी जितना ही द्रव्य भोगा हुवा होनेसे वह एक हजार दफा भेड़के भवमें उत्पन्न हुवा, हजार दफा खरगोस बना, हजार दफा मृग हुवा, हजार वार बारहसिंगा हुवा; हजार दफा गीदड़ हुवा, हजार दफा बिल्ला बना, हजार दफा, चूहा बना, हजार दफा, न्यौल हुवा, हजार दफा कोल हुवा, हजार दफा उपकी बना हजार बार पटडा गोय बना, हजार दफा सर्प, हजार दफा बिच्छू, हजार बार गंदकीमें कीड़ा, इस प्रकार हजार २ भवकी संख्यासे पृथ्वीमें, पानीमें, अग्निमें, वायुमें, वनस्पतिमे,शंखमें
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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