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________________ १७४ श्राद्धविधि प्रकरण नस्संतो समवेख्खई सोविहु परिभवई संसारे॥२॥ जो श्रावक मन्दिरकी आयका भंग करता है, देवद्रव्यमें देना कबूल कर फिर नहीं देता, देवद्रव्य का नाश होते हुये उसकी उपेक्षा करता है वह संसार में अधिक समय तक परिभ्रमण करता है। जिण पवयण वुढ्ढो कर । पम्भावगं नाणदंसणगुणा । भख्खन्तो जिणदब्वं अणंत संसारिओ होई ॥३॥ जिन प्रवचन की वृद्धि करानेवाला (देवव्यसे मन्दिरमें बारम्बार शोभाकारी कार्य होते हैं, बड़ी पूजायों पढाई जाती हैं, उसमें देवव्यका सामान कलशादिक उपयोगी होता है, जिस मन्दिरमें देवद्रव्य का सामान विशेष हो वहांपर बहुतसे लोक आमेसे बहुतोंके मनमें दर्शनका उत्साह भरता है) ज्ञान, दर्शन, चारित्र वगैरह गुणोंकी वृद्धि करानेवाला ( मन्दिरमें अधिक मुनियोंके आनेसे उनके उपदेशादिक को सुनकर बहुतसे भव्य जीवोंको ज्ञान दर्शनकी वृद्धि होती है ) जो देवद्रव्य है उसे जो प्राणी भक्षण करता है वह अनन्त संसारी होता है। जिण पवयण वुट्ठीकर पभ्भावगं नाण दन्सण गुणाणं । रख्खंतो जिणादव्वं परिस संसारि प्रो होई ॥४॥ जिन प्रवचन की वृद्धि करानेवाला ज्ञान दर्शन गुणको दिपानेवाला जो देवद्रव्य है उसका जो प्राणि रक्षण करता है वह अल्प भवोंमें मोक्ष पदको पाता है। जिण पवयण बुढ्ढीकर पभ्भावगं नाणदंसणगुणाणं । __ वुढ्ढन्तो जिणदव्वं तिथ्यकरत्त लहई जीवो ॥५॥ जिन प्रववनकी वृद्धि करानेवाले और ज्ञान दर्शन गुणको दीपानेवाले देवद्रव्यकी जो प्राणवृद्धि करता है वह तीर्थंकर पदको पाता है। ( दर्शन शुद्धि प्रकरणमें इस पदकी वृत्तिमें लिखा है कि देवब्य के बढ़ाने वालेको अरिहंत पर बहुत ही भक्ति होती है, इससे उसे तीर्थंकर गोत्र बंधता है। "देवद्रव्यकी वृद्धि कैसे करना?" जिसमें पंद्रह कर्मादान के कुव्यवहार हैं उनमें देवदब्यका लेन देन न करना परन्तु सच्चे मालका लेनदेन करनेवाले सद्ब्यापारियों के गहने रख कर उनपर देवद्रव्य सूद पर देकर विधि पूर्वक वृद्धि करना । ज्यों त्यों या विना गहने रक्खे या पन्द्रह कर्मादान के ब्यापार करनेवाले को देकर देवद्रव्य की वृद्धि न करना इसके लिए शास्त्रकार ने लिखा है कि, : जिणवर आणा रहियं वदारन्तावि केवि जिणदव्वं । बुड्डन्ति भव समुद्दे मूढा मोहेण अन्नाणी ॥६॥ जिसमें जिनेश्वरदेव को आज्ञा खंडन :होतो हो उस रीतिसे देवदव्य को वृद्धि करनेवाले भी कितने एक मूर्ख मोहसे अज्ञानी जीव भव समुद्र में डूबते हैं। कितनेक आचार्य कहते हैं कि, श्रावकके विना यदि दूसरेको देवदब्य धीरना हो तो अधिक मूल्यवान
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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