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________________ श्राद्धविधि प्रकरण रखना। यह सव मन्दिरकी उचित चिन्ता गिनी जाती है, इसमें निरन्तर यत्न करना चाहिये। यह चिन्ता अनेक प्रकारकी है; जो श्रावक सम्पदावान हो वह स्वयं तथा अपने द्रव्यसे एवं अपने नोकरोंसे सुखपूर्वक तलाश रखावे और जो द्रव्यरहित श्रावक है वह अपने शरीरसे मन्दिरका जो कार्य बन सकें सो करे अथवा अपने कुटुम्ब किसी अन्यसे कराने योग्य हो तो उससे करावे। जिस प्रकारका सामर्थ्य हो तदनुसार कार्य करावे, परन्तु यथा शक्तिको उल्लंघन न करे। थोड़े टाइममें बन सके यदि कोई ऐसा मन्दिरका कार्य हो तो उसे दूसरी निःसिही करनेके पहले करले, और यदि थोड़े टाईममें न बन सके ऐसा कार्य हो तो उसे दूसरी निःसिही क्रिया किये बाद यथायोग्य यथाशक्ति करे। इसी प्रकार धर्मशाला, पोषधशाला, गुरुज्ञान वगैरह की सार सम्भाल भी यथाशक्ति प्रतिदिन करनेमें उद्यम करे। क्योंकि देव, गुरु धर्मके कामकी सार सम्भार श्रावकके बिना अन्य कौन कर सकता है ? परन्तु चार ब्राह्मणोंके बीच मिली हुई एक सारन गौके समान आलस्यमें उपेक्षा न करना। क्योंकि देव, गुरु, धर्मके कार्यकी उपेक्षा करे और उसकी यथशक्ति सार सम्भाल न करे तो समकितमें भी दूषण लगता है। यदि धर्मके कार्यमें आशातना होती हो तथापि उसे दूर करनेके लिए तैयार न हो या आशातना होती देख कर जिसके मनमें दुःख न हो ऐसे मनुष्यको अहंत पर भक्ति है यह नहीं कहा जा सकता। लौकिकमें भी एक दृष्टान्त सुना जाता है कि, कहीं पर एक महादेव की मूर्ति थी उसमें से किसीने आंख निकाल ली उसके भक्त एक भीलने देख कर मनमें अत्यन्त दुःखित हो तत्काल अपनी आंख निकाल कर उसमें चिपकादी। इसलिए अपने सगे सम्बन्धियों का कार्य हो उससे भी अधिक आदर पूर्वक मन्दिर आदिके कार्यमें नित्य प्रवृत्तमान रहना योग्य है। कहा भी है किः देहे द्रव्ये कुटुम्बे च सर्व साधारणारति। .. जिने जिनमते संघे पुनर्मोक्षाभिलाषिणों ॥१॥ शरीर पर, द्रव्य पर और कुटुम्ब पर सर्व प्राणियोंको साधारण प्रीति रहती है, परन्तु मोक्षाभिलाषी पुरुषोंको तीर्थंकर पर, जिनशासन पर, और संघपर अत्यन्त प्रीति होती है । "आशातना के प्रकार" . " ज्ञानकी, देवकी, और गुरुकी, इन तीनोंकी आशातना जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ट, एवं तीन प्रकारकी होती है। . ज्ञानकी जघन्य आशातना-पुस्तक, पट्टी, टीपन, जयमाल वगैरह को मुखमेंसे निकला हुवा थूक लगनेसे, अक्षरोंका न्यूनाधिक उच्चारण करनेसे, ज्ञान उपकरण अपने पास होने पर भी अधोवायु सरनेसे होती है यह सर्व प्रकारकी ज्ञानकी जघन्य आशातना समझना। _____ अकालमें पठन, पाठन, श्रवण, मनन करना, उपधान; योगवहे बिना सूत्रका अध्ययन करना, भ्रान्तिसे अशुद्ध अर्थकी कल्पना करना, पुस्तकादि को प्रमादसे पैर वगैरह लगाना, जमीन पर डालना, ज्ञानके उपकरण पास होने पर, आहार-भोजन करना या लघुनीति करना, यह सब प्रकारकी ज्ञानकी मध्यम आशातना समझना । ... .. . . ... . .. . ....
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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