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________________ श्राद्धविधि प्रकरण हुषा हो तो उसे उपशमित करनेके लिये यदि इस लोकमें कुछ भी सुकृत करे तो उसे लाभ मिलता है । तूने कितनी एक देवता आदिकी पूजा की वह सब व्यर्थ है। क्योंकि पुत्रकी प्राप्तिके लिये देवि देवताकी मानता करना यह मात्र अज्ञानीका काम है । इससे तो प्रत्युत मिथ्यात्व की प्राप्ति होती है। अतः यदि तुझे पुत्रकी इच्छा हो तो इसलोक और परलोक दोनों लोकमें वांछित सुखके देनेवाले वीतराग प्रणीत धर्मका सेवन कर । यदि जिनप्रणीत धर्मका सेवन करनेसे तेरे अन्तराय कर्मका नाश न हुवा तो अन्य देवी देवताओं की मान्यतासे कैसे होगा ? यदि सूर्यसे अन्धकारका नाश न हुवा तो फिर उसे दूर करनेके लिए अन्य कौन समर्थ हो सकेगा। इसलिये तू कुपथ्यके समान मिथ्यात्व को छोड़कर सुपथ्यके समान अर्हतप्रणीत धर्मका सेवन कर, कि, जिससे परलोकमें तो सुखकी प्राप्ति अवश्य ही हो और इस लोकमें भी मनोवांछित पायेगी। ऐसे कह कर वह सुफेद पांखवाला हंसशिशु तत्काल ही वहांसे उड़ गया। इस प्रकारका स्वप्न देख जागृत हो किंचित् स्मितमुखवाली रानी अत्यन्त आश्चर्य पाकर बिचारने लगी कि, सचमुच उसके बतलाये हुये उपायसे मुझे अवश्य ही पुत्रकी प्राप्ति होगी। ऐसी आशा बधनेसे उसे धर्मपर आस्था जमी, क्योंकि कुछ भी सांसारिक कार्यकी वांछा होती है तब उस मनुष्यको प्रायः धर्मपर भी शीघ्र ही ढूढता होती है। इससे वह उस दिनसे किसी सद्गुरुके चरणकमल सेवन कर श्रावकधर्मका आचार विचार सोखकर त्रिकाल जिनपूजन करने और समकित धारीपन में तो सचमुच ही सुलसा श्राविका के समान शोभने लगी। अनुक्रमसे वह रानी सच. मुच ही बड़े लाभको प्राप्त करनेवाली हुई। ___एक दिन उस राज्यन्धर राजाके मनमें ऐसा विचार उत्पन्न हुवा कि, अभीतक पटरानोको पुत्र पैदा नहीं हुवा और अन्य सब रानियों को तो पुत्र पैदा होगया है। तब फिर इन बहुतसे पुत्रोंमें राज्यके योग्य कौन होगा। ऐसे बिचारकी चिन्तामें राजा निन्द्रावश हो गया। मध्यरात्रिके समय स्वप्नमें उसे साक्षात् एक पुरुषको आये हुये देखा । वह पुरुष राजाको कहने लगा कि, हे राजन् ! राज्यके योग्य पुत्रकी चिन्ता क्यों करता है ? इस जगत्में चिन्तित फलके देनेवाले जैनधर्मका सेवन कर ! कि, जिससे इस लोकमें तेरा मनोवांछित सिद्ध होगा, और परलोक में भी अत्यन्त सुखकी प्राप्ति होगी। यह स्वप्न देख जागृत होकर राजा जैनधम पर अत्यन हर्षसे आदरवान् हुवा, क्योंकि ऐसा उत्तम स्वप्न देखकर उसमें बतलाये हुए उपाय करनेके लिये ऐसा कौन मूर्ख है जो आलस्य करै । कुछ दिनों बाद प्रीतिमति रानीके उदररूप सरोवरमें हंसके समान आहेत् स्वप्न देखनेसे कोई उत्तम जीव आकर उत्पन्न हुवा। गर्भके उदयसे रानीको ऐसे मनोरथ होने लगे कि, मणिमय जिनबिम्ब या मन्दिर कराकर उसमें प्रतिमा पधरा कर नाना प्रकारकी पूजा पढ़ाऊं । जैसा फल उत्पन्न होनेवाला होता है वैसा ही पुष्प होता है । रानीके मनोरथ सिद्ध करनेके लिये राजाने तैयारी शुरू की, क्योंकि देवताकी मनसे ही कार्य सिद्धि होती है; राजाकी बचनसे कार्यसिद्धि होती है, और धनवान् की धनसे कार्यसिद्धि होती है, एवं दूसरे साधारण मनुष्यों की शरीरसे कार्यसिद्ध होती है, अतः राजाने बचनसे वह काम करनेका हुकुम किया। राजाने प्रीतिमतिके अतिकठोर मनोरथ भी सहर्ष पूर्ण किये। जैसे मेरु पर्वत कल्पवृक्षको उत्पन्न करता है त्यों उस रागीले स्वमास पूर्ण हुये बाद अत्यन्त महिमावन्त पुत्रको जन्म दिया। उसका जन्म होनेपर राजाने
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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