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________________ श्राद्धविधि प्रकरणं. प्राप्ति हुई थी। सबकी गोद भरी हुई देखकर और स्वयं बंध्या समान होनेसे प्रीतिमतीके हृदयमें दुःसह्य खेद हुवा करता है, क्योंकि एक तो वह सबमें बड़ी थी, और उसमें भी राजाकी सन्माननीया होते हुये भी वह अकेली ही पुत्र रहित थी । यद्यपि दैवाधीन विषयमें चिन्ता या दुःख करना व्यथ है तथापि अपने स्वभावके अनुसार वह रातदिन चिन्तित रहती है। अब वह पुत्र प्राप्तिके लिये अनेक उपाय करने लगी। बहुतसे देवताओंकी मिन्नतें कीं, बहुतसा औषधोपचार किया परन्तु ज्यों २ विशेष उपाय किये त्यों २ वे विशेष चिन्ताको बृद्धिमें कारण हुये क्योंकि जिसकी जो इच्छा है उसे उस वस्तुकी प्राप्तिके चिन्ह तक न देख पड़नेसे तदर्थ किये हुए उपायकी योजना सार्थक नहीं गिनी जाती। अब वह सर्वथा निरुपाय बन गई इससे उसका वित्त किसीप्रकार भी प्रसन्न नहीं रहता, वह ज्यों त्यों मनको समझा कर शांतिप्राप्ति करनेका प्रयत्न करती है। एकदिन मध्यरात्रोके समय उसे स्वप्नमें देखनेमें आया कि अपनी चित्तकी प्रसन्नता के लिये उसने एक बड़ा सुन्दर हंसका बच्चा अपने हाथमें लिया। उसे देखकर खुशी हो जब वह कुछ बोलनेके लिए मुख विकसित करती है उस वक्त वह हन्स शिशु प्रगटतया मनुष्यके जैसी बाणीमें बोलने लगा कि,-. 'हे कल्याणी तू ऐसी विचक्षणा होकर यह क्या करती है ? मैं अपनी मर्जीसे यहां आया हूं। और अपनी इच्छासे फिरता हूँ। जो प्राणी अपनी इच्छानुसार विचरनेवाला होता है उसे इस तरह अपने विनोदके लिये हाथमें उठा ले यह उसे मृत्यु समान दुखदायक होता है इसलिये तू मुझे हाथमें लेकर मत सता और छोड़ दे, क्योंकि एकतो तू बन्ध्यापन भोगती है और फिर जिससे नीचकर्म बंधे ऐसा काम करती है, मेरे जैसे पामर प्राणी को तूने पूर्वभवमें पुवादिकके वियोग दिये हुए हैं इसीसे तू ऐसा बध्यापन भोगती है अन्यथा तुझे पुत्र क्यों न हो ? जब शुभकर्म करनेसे धर्म प्राप्त होता है और धर्मसे ही मनवांछित सिद्धि मिलती है तब वह तेरेमें नहीं मालूम देता, तब तू फिर कैसे पुत्रवती होगी? उसके ऐसे वचन सुन कर भय और विस्मय को प्राप्त हुई रानी उसे तत्काल छोड कर कहने लगी कि,हे विचक्षणशिरोमणि! तू यह क्या बोलता है ? यद्यपि अयोग्यवचन बोलनेसे तू मेरा अपराधी है तथापि तुझे छोड़ कर मैं जो पूछना चाहती हूं तू उसका मुझे शीघ्र उत्तर दे। मैंने बहुत सी देविदेवताओं की पूजा की, बहुत ला दान दिया, बहुतसे शुभकर्म किये तथापि मुझे संसारमें सारभूत पुत्ररत्न की प्राप्ति क्यों न हुई ? यदि उसका उत्तर पीछे देगा तो भी हरकत नहीं परन्तु इससे पहिले तू इतना तो जरूर ही बतला कि मैं पुत्रकी इच्छावाली और चिंतातुर हूँ यह तुझे कैसे खबर पड़ी? तथा तू मनुष्यकी भाषासे कैसे बोल सकता है ? हन्स-कहने लगा-"यदि मैं अपनी बात तुझे कहूं तो इससे तुझे क्या फायदा ? परन्तु जो तेरे हितकारी बात है मैं वह तुझे कहता हूँ तू सावधान होकर सुन! प्राकृत कर्माधीना। धनतनय सुखादि संपदः सकलाः॥ विघ्नोपशमनिमित्तं । त्वत्रापिकृतं भवेत्सुकृतं ॥१॥ धन, पुत्र, सुख, इत्यादि संपदाफी प्राप्ति पूर्व भवमें किये हुए कर्मके आधीन है परन्तु अन्तराय उदय २०
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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