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________________ श्राद्धविधि प्रकरण १५० श्वर भगवानकी पूजा करके जो बनिया सारमें सार मोक्षपदको देनेवाले निर्मल पुण्यको ग्रहण करता है वही सच्चा बनियां व्यापारके काममें निपुण गिना जाता है । यास्याम्यायतनं जिनस्य लभते घ्यायंश्चतुर्थं फलं ॥ चोत्थित उद्यतोऽष्टमथो गंतु प्रवृत्तोऽध्वनि ॥ श्रद्धालुर्दशमं बहिज्जिनगृहात्प्राप्तस्ततो द्वादशं ॥ मध्ये पाक्षिक मीक्षिते जिनपतौ मासोपवासं फलं ॥ १ ॥ उपरोक्त गांथाका अर्थ पहले आ चुका है इसलिये पिष्टपेषणके समान यहां पर नहीं लिखा गया । पद्मप्रभचरित्र में भी यही बात लिखी है। उसमें विशेषता इतनी ही है कि, जिनेश्वरदेवके मन्दिरमें जानेसे छह मासके उपवासका फल, गभारेके दरवाजे आगे खड़ा रहनेसे एक वर्षके उपवासका फल, प्रदक्षिणा करते हुए सौ वर्ष उपवासका फल और तदनन्तर भगवानकी पूजा करनेसे एक हजार वर्षके उपवासका फल, एवं स्तवन कहने से अनन्त उपवासका फल मिलता है ऐसा बतलाया है। दूसरे भी शास्त्रमें कहा है कि, प्रभुका निर्माल्य उतार कर प्रमार्जना करते हुए सौ उपवासका, चन्दनादिसे विलेपन करते हुए हजार उपवासका और माला आरोपण करनेसे दस हजार उपवासका फल मिलता है। जिनेश्वर देवकी पूजा त्रिसंध्य करना कहा है । प्रातःकालमें जिनेश्वरदेवकी वासक्षेप पूजा, रात्रिमें किये ये दोषों को दूर करती है । मध्याह्नकालमें चंदनादिक से की हुई पूजा आजन्मसे किये हुए पापोंको दूर करती 'है, संध्या समय धूप दीपकादि पूजा सात जन्म के दोषोंको नष्ट करती है । जलपान, आहार, औषध, शयन, विद्या, मलमूत्रका त्याग, खेती बाड़ी वगैरह ये सब कालानुसार सेवन किए हों तो ही सत्फलके देनेवाले होते हैं, वैसे ही जिनेश्वर भगवान की पूजा भी उचित कालमें की हो तो सत्फल देती है । जिनेश्वर देवकी त्रिसंध्य पूजा करता हुवा मनुष्य सम्यक्त्व को सुशोभित करता है, एवं श्रेणिक राजाके समान तीर्थंकर नाम, गोत्र, कर्म बांधता है। गत दोष जिनेश्वरको सदैव त्रिकाल पूजा करनेवाला तीसरे भव या सातवें भवमें अथवा आठवें भवमें सिद्धिपदको पाता है। यदि सर्वादरसे पूजा करनेके लिये कदाचित् देवेन्द्र भी प्रवृत्त हो तथापि पूज नहीं सकता; क्योंकि तीर्थंकरके अनन्त गुण हैं। यदि एकेक गुणको जुदा २ गिनकर पूजा करे तो आजन्म भी पूजाका या गुणोंका अन्त नहीं आ सकता, इसलिये कोई भी सर्व प्रकारले पूजा करनेके लिये समर्थ नहीं। परन्तु सब मनुष्य अपनी शक्ति के अनुसार पूजा कर सकते हैं। हे प्रभु! आप अदृश्य हो ! इसलिये आंखोंसे देख नहीं पड़ते, आपकी सर्व प्रकारसे पूजा करनी चाहिए; परन्तु वह नहीं बन सकती, तब फिर अत्यन्त बहुमानसे आपके वचनको परिपालन करना यही यकारी है । " पूजामें विधि बहुमान पर चौभंगी" जिनेश्वरदेव की पूजामें यथायोग्य बहुमान और सम्यक् विधि ये दोनों हों, तब ही वह पूजा महा लाभकारी होती है । तिस पर चौभंगी बतलाते हैं।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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