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________________ श्राद्धविधि प्रकरणा प्राज्ञाराधाद्विरावाच । शिवाच च भवाय च ॥ १ ॥ प्राकालमियमाज्ञाते । हेयोपादेयगोचराः ॥ श्रास्रवः सर्वथा हेय । उपादेयश्व संवरः ॥ १ ॥ हे वीतराग ! आपकी पूजा करनेसे भी आपकी आज्ञा पालना महा लाभकारी है। क्योंकि आपकी आज्ञा पालना और विराधना करना इन दोनोंमेंसे एक मोक्ष और दूसरी संसारके लिए है। आपकी आज्ञा सदेव हेय और उपादेय है ( त्यागने योग्य और ग्रहण करने योग्य ) उसमें आलब सर्वथा त्यागने लायक और संघर सदा ग्रहण करने लायक है । १४६ “शास्त्रकारोंने बतलाया हुआ द्रव्य और भाव स्तवका फल" उक्कोसं दव्व थयं । प्राराहिथं जाई अच्चु जाव ॥ भावथ्थरण पावई ॥ अंतमुहुत्ते ण निव्वासां ॥ १ ॥ • उत्कृष्ट द्रव्य स्तवकी आराधना करने वाला ज्यादहसे ज्यादह ऊंचे बारहवें देवलोक में जाता है और भावस्तवसे तो कोई प्राणी अंतर्मुहूर्त में भी निर्वाण पदको पाता है । यद्यपि द्रव्यस्तव में कायके उपमर्दनरूप विराधन देख पड़ता है तथापि कूपकके दृष्टान्तसे वह करना उचित ही है। क्योंकि उसमें अलाभकी अपेक्षा लाभ अधिक है ( द्रव्यस्तवना करनेवालेको अगण्य पुण्यानुबन्धी पुण्यका बन्ध होता है, इसलिये आस्त्रव गिनने लायक नहीं ) । जैसे किसी नवीन बसे हुये गांवमें स्नान पानके लिये लोगोंको कुवा खोदते हुये प्यास, थाक, अंग मलिन होना, इत्यादि होता है, परन्तु कुधेमें से पानी निकले बाद फिर उन्हें या दूसरे लोगोंको वह कूपक स्नान, पान, अंग, सुखि, प्यास, थाक, अगकी मलिनता वगैरह उपशमित कर सदाकाल अनेक प्रकारके सुखका देनेवाला होता है, वैसे ही द्रव्यस्तव से भी समझना | आवश्यक नियुक्ति में भी कहा है कि, संपूर्ण मार्ग सेवन नहीं कर सकनेवाले श्रावकोंको विरताविरति या देशविरतिको द्रव्यस्तव करना उचित है, क्योंकि संसारको पतला करनेके लिये द्रव्यस्तव के विषय में - कुंवेका दृष्टान्त काफी है। दूसरी जगह भी लिखा है कि, 'आरम्भ में आसक्त छह कायके जीवोंके वधका त्याग न कर सकनेवाले संसार रूप अटवीमें पड़े हुये गृहस्थोंको द्रव्यस्तव ही आधार है; ( छह कायाके वध किये 'विना उससे धर्म करनी साधी नहीं जा सकती ) स्थेयो वायुचलेन निवृत्तिकर निर्वाण निर्घातिना । स्वायत्त' बहुनायकेन सुबहु स्वल्पेन सारं परं ॥ निस्सारेण धनेन पुण्यममलं कृत्वा जिनाभ्यर्चनं । यो गृह्णाति वि स एव निपुणो वाणिज्यकमण्यलं ॥ वायुके समान चपल मोक्षपदका घात करनेवाले और बहुत से स्वामीवाले निःसार स्वल्प धनसे जिने 4
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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