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________________ श्राद्ध विधि प्रकरण दिनकृत्य सूत्रमें कहा है कि इसप्रकार यह सर्व विधि रिद्धिवन्त के लिए कहा और धन रहित श्रावक अपने घरमें सामायिक लेकर यदि मार्गमें कोई देनदार न हो या किसीके साथ तकरार नहीं हो तो साधुके समान उपयोगवंत होकर जिनमंदिर में जाय । यदि वहांपर शरीरसे ही बन सके ऐसा द्रव्यस्तवरूप कार्य हो तो सामायिकको छोड़कर उस द्रव्यस्तवरूप करणीको करे। _____ इस श्राद्धविधिको मूलगाथामें 'विहिणा' विधिपूर्वक इस पदसे दसत्रिक, पांच अभिगम आदि चौवीस मृलद्वारसे दो हजार चुहत्तर बातें जो भाष्यमें गिनाई हैं उन सबको धारना । सो अब संक्षेपसे बतलाते हैं। __ "पूजामें धारने योग्य दो हजार चुहत्तर बातें" (१) तीन जगह तीन दफा नि:सिहिका कहना, (२) तीन दफा प्रदक्षिणा देना, (३) तीन दफा प्रणाम करना, (४) तीन प्रकारकी पूजा करना, (५) प्रतिमाकी तीन प्रकारकी अवस्थाका विचार करना, (६) तीन दिशामें देखनेका त्याग करना, (७) पैर रखनेकी भूमिको तीन दफा प्रमार्जित करना, (८) वर्णादिक तीनका आलंबन करना, (६) तीन प्रकारकी मुद्रायें करना, (१०) तीन प्रकारका प्रणिधान, यह दस त्रिक गिना जाता है। इत्यादिक सर्व बातें धारन करके फिर यदि देव बन्दनादिक धर्मानुष्ठान करे तो महाफलकी प्राप्ति होती है। यदि ऐसा न बने तो अतिचार लगनेसे या अविधि होनेसे परलोकमें कष्टकी प्राप्तिका हेतु भी होता है । इसके लिये शास्त्र में कहा है कि, धर्मानुष्ठानैव तथ्यात् । प्रत्यपायो महान् भवेत् ॥ रौद्र दुःखौघजननो । दुष्प्रयुक्तादि औषधात् ॥१॥ . जैसे अपथ्यसे औषध खानेमें आवै और उससे मरणादिक महाकष्टकी प्राप्ति होती है वैसे ही धर्मानुष्ठान भी यदि अशुद्ध किया जाय तो उससे नरकादि दुर्गतिरूप महाकष्टकी परम्परा प्राप्त होती है। यदि चैत्यवंदनादिक अविधिसे किया जाय तो करनेवालेको उलटा प्रायश्चित्त लगता है। इसके लिये महानिशीथ सूत्रके सातवें अध्ययन में कहा है अविहिए चेइमाइ वंदिजा । तस्सणं पायच्छित उवइसिज्जाजयो प्रविहिए चेइमाई वंदमारण अन्नेसि असद्धजणेइ ईई काऊणं ॥ अविधिसे चैत्योंको वन्दन करते हुये दूसरे भव्य जीवोंको अश्रद्धा (जिन : शासनकी अप्रतीत ) उत्पन्न होती है, इसी कारण जो अविधिसे चैत्यवंदन करे उसे प्रायश्चित्त देना। देवता, विद्या और मंत्रादिक भी यदि विधिपूर्वक आराधे जाय तब ही फलदायक होते हैं। यदि ऐसा न हो तो अन्यथा उसे तत्काल अनर्थकी प्राप्तिका हेतु होते हैं । "इसपर निम्न दृष्टान्त दिया जाता है" .. "चित्रकारका दृष्टान्त" अवीध्या नगरीमें सुरप्रिय नामा यक्ष रहता था, प्रतिवर्य उसकी वर्षगांठकी यात्रा भरती थी। उसमें इतना आश्चर्य था कि जिस दिन उसकी यात्रा भरनेवाली होती थीं उस दिन एक चित्रकार उस यक्षके मन्दिर जी कर उसकी मूर्ति चित्रे तबतत्काल ही वह चित्रकरि मृत्युके शरण होजाता था। यदि किसी वर्ष यात्राक दिन
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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