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________________ श्राद्ध विधि प्रकरणं कोसंवि संठियस्सव, पयाहिणं कई मउलिम पयावो ।। जिासोम दंसो दिणयरूव्व तुह मंगल पईवो॥१॥ मामिज्जन्तो सुन्दरीहि, तुहनाहमंगल पईवो ॥ कणयायलस्स नजई, भाणुव्व पयाहियां दितो ॥२॥ "चन्द्र समान सौम्य दर्शनवाले हे नाथ! जब आप कौसांबी नगरी में विचरते थे उस वक्त क्षीण प्रतापी सूर्य अपने शाश्वते विमानसे आपके दर्शन करनेको आया था उस वक्त जैसे वह आपकी प्रदक्षिणा करता था वैसे ही यह मंगलदीपक भी आपकी प्रदक्षिणा करता है। जैसे मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा करते हुये सूर्य शोभता है वैसे ही हे नाथ! सुर सुन्दरियोंसे संचरित (प्रदक्षिणा कराते हुये परिभ्रमण कराया हुआ ) यह मंगल दीपक भी प्रदक्षिणा करते शोभता है।" इस प्रकार पाठ उच्चारण करते हुये तोन दफा मंगल दीपक उतार कर उसे प्रभुके चरण कमल सन्मुख रखना । यदि मंगल दीपक उतारते समय आरती बुझ जाय तो कुछ दोष नहीं लगता। आरती मंगल दीपकमें मुख्य बत्तीसे घी, गुड, कपूर, रखना इससे महालाभ प्राप्त होता है । लौकिक शास्त्रमे भी कहा है कि: मज्वाल्य देवदेवस्य, कर्पू रेण तु दीपकं ॥ अश्वमेधमवाप्नोति, कलं चैव समुद्धरेत ॥१॥ परमेश्वर के पास यदि कपूरसे दीपक करे तो अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। और उसके कुलका भी उद्धार होता है। ___ हरिभद्र सूरिद्वारा किये हुये समरादित्य केवलीके चरित्रके आदिमें 'उवणेवु मंगल वा' ऐसा पाठ आता है जिससे यह स्नात्र विधानमें प्रदर्शन 'मुक्कालंकार' यह गाथा हरिभद्रसूरिकी रची हुई संभवित है।" इस स्नात्र विधानमें जो जो गाथा आई हुई हैं वे सब तपागच्छमें प्रसिद्ध हैं, इसी लिये नहीं लिखीं, परन्तु स्नात्र पूजाके पाठसे देख लेना। स्नानादिकमें समाचारीके भेदसे विधिमें भी विविध प्रकारका भेद देखा जाता है तथापि उसमें कुछ उलझन नहीं (इस विषयमें दूसरेके साथ तकरार भी न करना) क्योंकि, अरिहंतकी भक्तिसे साधारणतः सवका एक मोक्ष फल ही साध्य है। तथा गणधारादिको समाचारीमें भी प्रत्येकका परस्पर भेद होता है। इसलिए जिस २ धर्मकार्यमें विरोध न पड़े ऐसी अरिहंतकी भक्तिमें आचरणा, फेरफार हो तथापि वह किसी आचार्यको सम्मत नहीं। ऐसा सभी धर्म-कृत्योंमें समझ लेना । यहां पर जिनपूजाके अधिकारमें आरती उतारना, मंगल दोपक उतारना, नोन उतारना, इत्यादि कितमी येक करणी कितने एक संप्रदायसे सब गच्छोंमें एक दूसरेकी देखादेखीसे पर दर्शनीयोंके समान चली आती हैं ऐसा देख पड़ता। श्री जिनप्रभसूरिकृत पूजाविधिमें तो इस प्रकार स्पष्टाक्षारोंसे लिखा है कि, लवणाई उताणं पयालित सूरियाई पृव्वपुरिसेहिं साहारेण अन्नयंपि संपयं सिंहिए कारिज्जई। लवण आरतीका उतारना पाद
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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