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________________ श्राद्धविधि प्रकरण १७ लादिकको बलिदान देकर चतुर्विध श्रीसंघ सहित वाद्य बजते हुये ध्वज चढ़ाना । फिर यथाशक्ति श्री संघको परिधापना, स्वामी वात्सल्य, प्रभावना करके प्रभुके सन्मुख फल वगैरह शेष नैवेद्य रखना। आरती उतारते समय प्रथम मङ्गल दीपक प्रभुके सन्मुख करना । मंगल दीपकके पास एक अग्निका पात्र भरकर रखना उसमें लवण जल डालनेके लिये हाथमें फूल लेकर तीन दफा प्रदक्षिणा भ्रमण कराते हुये निम्त लिखी गाथा बोलना। .. उवणेउमंगलंवो। जिणाणमुहलांलिजाल प्रावलिया॥ निध्यपवत्तणसमए । तिमसविमुक्का कुसुपवुट्ठी ॥ "केवल ज्ञान उत्पत्तिके समय और चतुर्विध श्री संघकी स्थापना करते समय जिनेश्वर भगवानके मुखके सन्मुख झंकार शब्द करती हुई जिसमें भ्रमरकी पंक्तियां हैं ऐसी देवताओंकी की हुई आकाशसे कुसुमवृष्टि श्रीसंघको अध्यात्म योग निर्मल करनेके लिए मंगल दो!" ... ऐसा कहकर प्रभुके सन्मुख पहले पुष्प वृष्टि करना, लवण, जल, पुष्प, हाथमें लेकर प्रदक्षिणा भ्रमण करते हुये निम्न लिखी गाथा उच्चारण करना । उग्रह पडिभग्ग पसर, पयाहिणं मुणिवइ करिउणं ॥ पडइ सलोणतण, लज्जिम च लोणंहु अवपि ॥१॥ जिससे सर्व प्रकारके सांसारिक प्रसार दूर होते हैं ऐसी प्रदक्षिणा करके और श्री जिनराज देवके शरीरको अनुपम लावण्यता देखकर मानो शरमिन्दा होकर लवण अमिमें पड़कर जल मरता है यह देखो" . उपरोक्त गाथा कहकर जिनेश्वर देवको तीन दफा पुष्प सहित लवण जल उतारना। फिर आरतीकी पूजा करके धूप करना। एक श्रावक मुखकोष बांधकर थालमें रखी हुई आरतीका थाल हाथमें लेकर आरती उतारे। एक उत्तम श्रावक पवित्र जलसे कलश भरकर एक थालमें धारा करे, और दूसरा श्राबक वाद्य बजावे तथा पुष्पोंकी वृष्टि करे। उस समय निम्न लिखी आरतीकी गाथा बोलना मरगयमणि घडि अविशाल, थालिमाणिक्क 'डिन पइन्छ । न्हवणकार करूख्वि, भमनो जियारचिभो तुम्ह ॥२॥ "मरकत रत्लके घड़े हुये विशाल थालमें माणिकसे मंडित मंगल दीपकको स्नान करने बालेके हाथसे ज्यों परिभ्रमण कराया जाता है त्यों भव्य प्राणियोंकी भवकी आरती परिभ्रमण दूर होवो !” इस प्रकार पाठ उच्चारण करते हुए उत्तम पात्रमें रखी हुई आरती तीन दफा उतारना। ऐसे ही त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्रमें भी कहा है कि, करने योग्य करणी करके कृत कृत्य होकर इन्द्रने अब कुछ पीछे हटकर तीन जगतके नाथकी आरती उतारनेके लिए हाथमें आरती ग्रहण की। ज्योति. वन्त औषधियोंके समुदाय वाले शिखरसे जैसे मेरु पर्वत शोभुता है वैसे ही उस आरतीके दीपककी कान्तिसे इन्द्र भी स्वयं दोपने लगा। दूसरे श्रद्धालु इन्द्रोंने जिसवक्त पुष्प बरसाये उस वक्त सौधमेन्द्रने तीन जगतके नायकको तीन दफा आरती उतारी। :: फिर मंगल दीपक भी भारतीके समान ही पूजना और उस समय निम्न लिखित गाथा बोलना । १८
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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