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________________ श्राद्धविधि प्रकरण फिर प्रभावति रानीने सब बलो आदिक-(नैवेद्य वगैरह आदि शब्दसे धूप, दीप, जल, चंदन, ) तयार कराके देवाधिदेव वर्धमान स्वामीकी प्रतिमा प्रगट होवो ऐसा कहकर तीन दफा (उस काष्टपर) कुहाडा मास । फिर उस काष्टके दो भाग होनेसे सर्वालंकार विभूषित भगवन्त की प्रतिमा देखी। नीबीथ सूप्रकी पीठिकाम भी कहा है कि,:-बलीति असिवोव समनिमित्वं कुरो किंज्जइ' बली याने अशिवकी उपशांतिके लिए कूर करे (भात बढावे )। नीषीथको चूणिमें भी कहा है कि:-संपइराया रहम्गामो विविहफले खज्जग भुजगम कवउग वच्छमाइ उकिकरणो करेइ" सम्प्रति राजा उस रथयात्रा के आगे विविध प्रकारके फल, शाल, दाल, शाक, कवडक, वस्त्र आदिका उपहार करता है। बृहतू कल्पमें भी कहा है कि,: "साहाम्पियो न सथ्या। तस्सायं तेगावपई जइणं ॥ जुपुन्न पडिमाणकए । तस्सकहाकाअ जीवचा ॥" साधु श्रावकके साधर्मिक नहीं (श्रावकका साधर्मी श्रावक होता है) परन्तु साधुके निमित्त किया आहार जब साधुको न खपे,--तब प्रतिमाके लिये किये हुए बलि नैवेद्यकी तो बात हो क्या ! अर्थात् प्रतिमा के लिये किया हुवा नैवेद्य साधुको सर्वथा ही नहीं कल्पे। प्रतिष्ठापाहुइसे श्रीपादलिप्तसूरिद्वारा उद्धत प्रतिष्ठापद्धतिमें कहा है कि, "प्रारचिन यवयारण। मंगल दीवं च निम्पि पच्छा ॥ चउनारिहिं निबज्ज। चिण विहिणाओ कायब्वं" ॥ आरती उतारके मंगल दीया किये बाद चार उत्तम स्त्रियों को मिलकर नित्य नैवेद्य करना। महातीषीथके तीसरे अध्यायमें भी कहा है कि,: "अरिहंताण भगवंताणं गंधमल्ल पईव सपजिणो विरोवण विचित्तबली वच्छ धूवाइएहिं पना.. सक्कारेहिं पइदिणमम्भच्चयांपि कुव्वाणा तिथ्यूपण करेपोति ॥” अरिहंतको, भगवन्तको, बरास, पुष्पमाला, दीपक, मोरपीछीसे प्रमार्जन, कन्दनादिसे विलेपन, विविध प्रकारके बली-नैवेद्य, वस्त्र, धूपादिकसे पूजा सरकारले प्रतिदिन पूजा करतेहुए भी तीर्थकी उन्नति करे । ऐसे यह अग्रपूजा अधिकार समाप्त हुवा । "भावपूजाधिकार" भावपूजा जिनेश्वर भगवान्की द्रव्यपूजाके व्यापार निषेधरूप तीसरी 'निःसिहि" करने पूर्वक करना । जिनेश्वरदेवको दक्षिण--दाहिनी तरफ पुरुष और बाई तरफ स्त्रियोंको आसातना दूर करनेके लिये कमसे कम घर मन्दिरमें एक हाथ या आधा हाथ और बड़े मन्दिरमें नब हाथ और विशेषतासे साठ हाथ एवं मध्यम भेव दस हाथ से लेकर ५६ हाथ प्रमाण अवाह रखकर चैत्यवंदन करने बैठना (यदि इतनी दूर बैठे तब ही काम्य, श्लोक, स्तुति, स्तोत्र, खेलना ठीक पड़े इसलिये दूर बैठनेका व्यवहार है ) शास्त्रों कहा है कि तइयाभो मात्रामा, ठाक विन्दयो चिपदेसे ॥
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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