SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राद्धविधि प्रकरण १०७ बक उसने उस तुम्बेका शाक बनाकर पुत्रको ही परोसा। वह उस शाकको मुखमें डालते ही यूज्यूकार करने लगा और बोला-"अरी, इतना कड़वा शाक कहांसे निकाला ?" भातान-कहा क्या अभी भी इसकी कड़. पास नहीं गई ? अरे! यह क्या तूने इसे इतने सारे तीर्थोपर स्नान कराया तथापि इसकी कड़वाह नई सो तूने इसे सचमुख स्लान ही नहीं कराया होगा ? पुत्र बोला-''नहीं, वहीं मैंने सचमुक्ती इसे सब तीर्थोपर मेरे साथ ही स्नान कराया है। माता बोली-“यदि इतने सारे तीर्थोपर इसे निलहाने पर भी इसकी कड़वास नहीं गई, तब फिर सचमुच ही तेरा भी पाप नहीं गया। क्या कभी तीथ पर.न्हानेसे.ही पाप जा सकते हैं ? पाप तो धर्मक्किया और तप, जप, द्वारा ही जाते हैं ! यदि ऐसा न हो तो इस.तुबेका कड़वापन क्यों न गया ? माताकी इस युकिसे प्रतिबोधको प्राप्त हो कुलपुत्र तप, करनेमें श्रद्धावन्त हुआ। स्नान करनेमें असंख्य जीवमय जलकी और उसमें शैवाल आदि हो तो अनन्त जन्तूकी विराधना और विना छाने जलमें पूरे दो इन्द्रियादि जीवोंकी विराधनाका भी संभव होनेसे व्यर्थ स्नान करनेमें दोष प्रख्यात ही है। जल, यह जीवमय ही है, इस विषयमें लौकिक शास्त्रके उत्तर भी मीमांसामें कहा है किः-. लूतास्पतंतू गलिते ये विदौ सांति जंतवः॥ सक्ष्मा भ्रमरमानास्ते नैवमांतित्रिविष्टपे ॥६॥ मकड़ीके मुखमें जो तंतू है वैसे तंतूसे बनाये हुए वस्त्रमेंसे छाने.हुए मानीके एक बिन्दुम जितने जीव है उनकी सूक्ष्म नमरके प्रमाणमें कल्पना की जाय तो तीनों जगतमें भी नहीं समा सकते। "भावस्नानका स्वरूप” ध्यानाभस्यानुजीवस्य, सदा यच्छुद्धिकार । मलम् कर्म समाश्रित्य भावस्नानंतदुच्यत । ७॥ जीवको ध्यानरूप जलसे जो सदैव शुद्धिका कारण हो और जिसका माश्य कोलेसे कमरूप मल धोया जाय उसे भावस्नान कहते हैं। "पूजाके विषयमें" जिस मनुष्यको स्नान करनेसे भी यदि गूमडा घाव, वगैरहमेसे पीच या रसो झरती हुई बन्द न होने के कारण द्रव्यशुद्धि न हो तो उस मनुष्यको अंग पूजाके लिये अपने फूल चंदनादिक दूसरे किसीकी देकर उसके पास भगवानकी पूजा कराना, और स्वयं दूसरे अग्र पूजा (धूप, अक्षत, फल, चढ़ाकर ) तथा भाव. पूजा करना, क्योंकि शरीर अपवित्र हो उस वक्त पूजा करे तो लाभके बदले आशातनाका संभव होता है, अतः उसे अंगपूजा करनेका निषेध है। कहा है कि निःषुकत्वादशौचोपि देवपूजा तनोति यः॥ पुष्पभूपतितैर्यश्च भवतश्वपचादियो॥८
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy