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________________ २०४ marat.mm.in श्राद्धविधि प्रकरण .. भावशुध्दे निमित्त्वा, तथानुभवसिद्धितः ॥ कथंचिदोष भावेपि, तदन्यगुणभावतः॥३॥ भावशुद्धि (परिणाम शुद्धि ) का कारण है । एवं अनुभव ज्ञानसे देखने पर कुछ अपकाय विराधनादि दोष देख पड़ता है, परन्तु उससे जो दर्शनशुद्धि (समकितकी प्राप्ति ) होती है ; यही गुण है इसलिये भावसे लाभकारी है। पृभाएं कायवहो, पडिकुट्ठों सोउ किंतु जिणपूना॥ सम्मत्त सुद्धि देशत्ति, भावणीआनो निखज्जा॥४॥ - पूजा करनेमें अपकायादिका विनाश होता है, इसलिए ही पूजा न करना ऐसी शंका रखने वालेको उत्तर देते हुए गुरू कहते हैं कि, 'पूजा' यह समकितकी शुद्धि करने वाली है। इसलिए पूजाको दोष रहित ही समझना चाहिये। ___ अपर लिखे प्रमाणसे देवपूजा आदिके लिए ग्रहस्थको द्रव्यस्नान करनेकी आज्ञा है, अत: 'द्रव्य स्नानसे कुछ भी लाभ नहीं होता, ऐसे बोलनेवाले लोगोंका मत असत्य समझना। तीर्थ पर स्नान किया हो तो फक्त देहको कुछ शुद्धि होती है परन्तु आत्माकी एक अंश मात्र भी शुद्धि नहीं होती। इस विषयमें स्कंधपुराणके छठे अध्ययनमें कहा है कि,: मृदोमार. सहस्रण, जलकुम्भशतेन च, न शुध्यंति दुराचाराःस्नातास्तीर्थ शतैरपि ॥१॥ जायन्ते च म्रियन्ते च जलेष्वेव जलौकसः॥ न च गच्छंति ते स्वगा मत्रि शुद्धमनोमला ॥२॥ चित्तं शमादिभिः शुद्ध वदनं सत्यभाषणः ॥ ब्रह्मचर्यादिभिः काय, शुद्धो गंगा विनाप्यसौ॥३॥ चिरागादिभिः क्लि, पलीकवचनमुखं ॥ जोवहिंसादिभिः कायो, गंगा तस्य पराङ्मुखो॥४॥ परदारपरद्रव्य, परद्रोहपराङ्मुखः॥ गंगाप्याह कदागत्य, मामय पावयिष्यति ॥५॥ हजार बार मिट्टीसे, पानीसे भरे हुये सैकड़ों घड़ोंसे, या सतगये तोर्थके स्नान करनेसे भी दुराचारी पुरुषों के दुराचार पाप शुद्ध नहीं होते, जलजंतू जलमें ही उत्पन्न होते हैं और उसमें ही मृत्यु पाते हैं परन्तु उनका मन मैल दूर न होनेसे वे देवगतिको प्राप्त नहीं होते। गंगामें स्नान किये बिना भी शम, दम संतोषादिसे मना निर्मल होता है, सत्य बोलनेसे मुख शुद्ध होता है, ब्रह्मचर्यादिसे शरीर शुद्ध होता है। रागादिसे मन मलिन होताहै, असत्य बोलनेसे मुख मलिन होता है और जीवहिंसासे काया मलिन होती है, तो इससे गंगा भी दूर रहती है । गंगा भी यही चाहती हैं कि; पर स्त्रीसे, पर द्रव्यसे, और पर द्रोहसे दूर रहनेवाले पुरुष मेरे पास आकर मुझे कब पावन करेंगे। (गंगा कैसे पुरुषोंको पवित्र करती है इस विषयमें दृष्टान्त) ___ कोई एक कुलपुत्र अपने घरसे गंगा आदि तीथयात्रा करने वला; उस वक्त उसकी माताने कहा कि है पुत्र! मेरा यह तुम्बा भी साथ लेजा और जहां २ तीर्थ पर तू स्नान करे वहां २ इसे भी स्नान कराना। . कुलगुनने मांका कहना मंजूरकार जिस २ तीर्थ पर गया उस २ तीर्थमें उस तुबेको भी अपने साथ स्नान कराया । अन्तमें गंगा आदि तीर्थकी यात्रा कर अपने घर आया और माताकातूबा उसे समर्पण किवा असा
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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