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________________ श्राद्धविधि प्रकरण ४ उवाण (उपानह.)-पैरोंमें पहननेका जूता तथा कपड़ों के मोजे और काष्टकी पावडी तो अधिक जीवकी विराधना होनेके भयसे श्रावकको पहरनी उचित ही नहीं। तथापि ( यदि न छुटके पहरनी पडे तो) जितनी जोड़ी पहरनी हों उतनी खुली रखकर अन्यका त्याग करना। ५ तंबोल (तांबुल)-पान, सुपारी, खैरसाल, या कथ्थेकी गोली, इलायची, लोंग, वगैरह स्वादीय वस्तु. ओंका नियम करना । जैसे कि पानके बीड़ेमें जितनी वस्तु डालता हो उतनी वस्तु वाला एक, दो, चार, या अमुक वखत बोडा खाना । तदुपरांत उसका नियम करना। ६ वत्थ (वस्त्र ) पांचों अंगमें पहननेके वेष-स्त्रका परिमाग करना और तदुपरांतका त्याग करना। इसमें रात्रिके समय पहननेका धोती न गिनना। ७ कुसुम-अनेक जातिके फूल सूंघनेका, माला पहननेका या मस्तकमें रखनेका, या शय्यामें रखनेका नियम करना ( फूलका अपने सुख भोगके लिए नियम किया जाता है परन्तु देव पूजामें उपयुक्त फुलोंका नियम नहीं किया जाता। ८ वाहन - रथ, गाड़ी, अश्व, पालखी, सुखपाल, गाड़ी, वगैरह पर बैठकर जाने आनेका नियम करना अपने या दूसरेके वाहन पर जितनी दफां बैठना पडे उतनी छूट रखकर बाकीका नियम रखना। ६ शयन (शय्या)-पल्यंक, खाट, कोंच खूरसी, बांक, पाट, वगैरह पर बैठनेका नियम रखना। १० विलेवन (विलेपन)-अपने शरीरको सुशोभित करनेके लिए चंदन, अतर, कस्तूरी वगैरहका नियम करना (नियमके उपरांत ये सब वस्तु देव पूजाके लिए उपयोगमें लाई जा सकती हैं। ११ बंभ (ब्रह्मवर्य)-दिनमें या रात्रिके समय स्त्री भोगका नियम करना। १२ दिशि-दिशा परिमाण । अमुक २ दिशामें अमुक बाजार तक या अमुक दूर तक जानेका नियम करना। १३ ण्हाण-(स्नान ) एक दो दफे तेल मसलकर नहानेका नियम रखना। १४ भात-पकाये हुये धान्य वगैरह भोज्यका शेर वा दो शेर आदिका नियम रखना। यहांपर सचित्त या अचित्त वस्तुओंको खानेकी छूठ रखनेमें उनके जुदे २ नाम लेकर रखनी, अयवा ज्यों बन सके त्यों यथाशक्ति नियम रखना। उपलक्षणसे अन्य भी फल, शाक, वगैरहका यथाशक्ति नियम करना। इस प्रकार नियम धारण किये बाद यथाशक्ति प्रत्याख्यान करना चाहिये । _ "प्रख्यान करनेकी रीति" यदि नवकारसही सूर्यके उदय होनेसे पहले उचरी हो तो पूरी हुये बाद भी पोरशी, साढपोरशी आदि काल प्रत्याख्यान भी सबमें किया जाता है । जिस २ प्रत्यख्यानका जितना २ समय है उसके अन्दर णमुका. रसही उच्चार किये वगैर सूर्य के उदय पीछे काल प्रत्याख्यान शुद्ध नहीं होता, यदि सूर्यके उदयसे पहले णमु. कारसही बिना पोरशी आदिक प्रत्याख्यान किया हो तो प्रत्याख्यानकी पूर्तिपर दूसरा कालका प्रत्याख्यान शुद्ध नहीं होता, परन्तु उसके अन्दर शुद्ध होता है। इस प्रकारका वृद्ध व्यवहार है। णवकारसही प्रत्याख्यानका
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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