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________________ हैं । बाहे जितनी भी क्रिया क्यों न की जाय, चाहे जितना हाल क्यों न प्राप्त किया जाय, चाहे जितनी तपस्या ९ चित्तदमन की जाय और चाहे जितना योगसाधन किया जाय, परन्तु जबतक मनकी अस्थिरता हो, चित्त आकुल-व्याकुल हो, मानसिक क्षोभ हो तबतक साध्य प्राप्त नहीं हो सकता है, इसको मुख्यतया लक्ष्यमें रखना चाहिये । ज्ञानका, तपका अथवा क्रियाका आशय मनपर अंकुश लगानेका होना चाहिये । यह शुद्ध दृष्टिकी अपेक्षासे यथातथ्य है कि मनकी अव्यवस्थित स्थिति होनेसे प्राणीके कार्य कोई फल नहीं दे सकते हैं । इस सम्बन्धमें हमारे विचार साधारणतया अचोकस होते हैं। सामान्य प्रकृति बाह्य देखोव पर बहु मत बांध देती है परन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं होना चाहिये । अमुक प्राणीके सम्बन्धमें मत बांधनेसे पहिले उस प्राणीके मनपर कितना अंकुश है उसपर अच्छी तरह विचारकर लेना चाहिये । चाहे जैसे भी कठिनसे कठिन कार्य करनेको उद्यत हुए प्राणीको मन किस प्रकार अपने कर्तव्यपथसे विचलित कर देता है इसका अनुभव विचार करनेसे सहज ही समझमें आ सकता है। क्रियाकी अवहेलना कर मनको ही शास्त्रकारोंने मोक्ष और बंधका कारण क्यों बतलाया है इसका रहस्य इस अधिकारमें अत्यन्त स्पष्टतया समझाया गया है। इस अधिकारमें ग्रन्थकर्त्ताने प्रथम अधिकारके समान अपनी विद्वत्ता प्रगट की है और विवेचनको भी अत्यन्त विचारपूर्वक लिखनेका प्रयास किया गया है । इस अधिकारका विषय अत्यन्त उपयोगी प्रतीत होनेसे इस पर विशेषतया ध्यान दिलानेकी और मनन करनेकी प्रार्थना की गई है। दसवा अधिकार वैराग्यका है। इस अधिकारमें इस संसारके ऊपरसे राग ऊठ जाय और वस्तुस्वरूप उसके यथास्थित आकारमें समझमें आ सके इसलिये विद्वान् १० वैराग्य ग्रन्थकर्त्ताने भिन्न भिन्न विषयोंको लेकर वैराग्य ___ होनेके साधनोंको प्रदर्शित किये हैं । मृत्युका दौर. दौरा, लोकरंजनके लिये किया हुआ धर्म, इस जोवको प्राप्त हुए अनेक प्रकारके संयोग, उनसे उसके लेने योग्य लाभ, धर्मसे होने. वाला दुःखक्षय, सुखका वास्तविक स्वरूप, प्रमादसे होनेवाले दुःख,
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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