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________________ अधिकार ] मिथ्यात्वादिनिरोधसंवरोपदेशः [६१५ न रम्यं नारम्यं प्रकृतिगुणतो वस्तु किमपि । प्रियत्वं वस्तूनां भवति च खलु ग्राहकवशात्॥ . __'कोई भी वस्तु प्रकृतिसे सुन्दर या असुन्दर नहीं है, सुन्दर तथा असुन्दरपन वस्तुके ग्राहकपर आधार रखता है।' इसलिये अब जो प्रश्न उठता है वह वस्तुपर नहीं परन्तु अपने निजके मनकी स्थितिपर आधार रखता है इस मनके अनुकल इन्द्रियोंका जय करना यह प्रबल पुरुषार्थ है और इसीलिये इन्द्रियसंयम हमारा कर्तव्य है । थोड़ासा आत्मवीर्य जागृत कर मनमें सच्चे नियमसे कार्यतंत्र वहन करनेका दृढ संकल्प किया जाय तो इन्द्रियविषय उपभोगका मार्ग अंकित हो जाय और एक बार ऐसा अभ्यास थोड़ेसे समय तक रखा जाय तो फिर वह नैसर्गिक प्रवाह हो जायगा । इस प्रकारके आत्मशुद्ध प्रवाहमें रमण करनेवाले-इन्द्रियों को शुभ मार्गमें प्रवृत करनेवाले महा• त्मामोंकी हम स्तुति करते हैं। कषायसंवर-करट और उत्करट. कषायान् संवृणु प्राज्ञ !, नरकं यदसंवरात् । महातपस्विनोप्यापुः, करटोत्करटादयः ॥ १९ ॥ ___" हे विद्वान् तू कषायका संवर कर । उसका संवर नहीं करनेसे करट और उत्करट जैसे महातपस्वी भी नरकको अनुष्टुपः विवेचन-मिथ्यात्वत्याग और योगसंबर निमित कह चुके, अब कषायसंवरके लिये कुछ शब्द कहे जाते हैं। इस विषयपर पूरा अधिकार पहिले लिख दिया गया है, इससे अब और यहां अधिक लिखनेकी भावश्यकता नहीं है। इस सब बातका " कषायत्याग " नामक सातबा अधिकार पढ़ें। प्राप्त हुए हैं।"
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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