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________________ ६१४ ] . अध्यात्मकरुपद्रुम [चतुर्दश समुदायसे पांचो इन्द्रियोंके संवरका उपदेश. विषयेन्द्रियसंयोगाभावात्के के न संयताः । रागद्वेषमनोयोगाभावाद्ये तु स्तवीमि तान् ॥१८॥ "विषय और इन्द्रियों के संयोग न होनेसे कौन संयम नहीं पालता है ? परन्तु राग-द्वेषका योग जो मनके साथ नहीं होने देते उन्हीकी में तो स्तवना करता हूँ।" अनुष्टुप्. विवेचन-मधुरस्वर, सुन्दर रूप, सुगन्धित पुष्प, मिष्ट पदार्थ और सुकोमल स्त्री-ये पांच विषय हैं । ये इन्द्रियोंको न मिल सके अर्थात् कानको सुस्वर न मिले, आँखको सुरूप न मिले, रसनाको अनुकूल पदार्थ न मिले, इत्यादि; तब तो, वृद्धनारी पतिव्रता' जैसी दशा होती है, परन्तु यह प्रात्मसंयम नहीं कहला सकता है । इन्द्रियोंके प्रिय विषयोंपर राग न हों और, अप्रिय विषयोंपर द्वेष न हों, वह ही वास्तविक संयम है। वास्तविकतया त्रिकालिक वस्तुस्वरूपको विचारते हुए कोई भी वस्तु प्रिय या अप्रिय है ही नहिं, क्यों कि यदि स्वाभाविकतया कोई वस्तु अप्रिय हो तो वह सदैव अप्रिय ही रहनी चाहिये, परन्तु अवलोकन करने पर इससे विरुद्ध ही अनुभव होता है । नीम कडुवा होता है इसलिये रसनाको अप्रिय जान पडता है, परन्तु बिमार होने पर व्याधिका नाश करता है और तिथंच उसे आनन्दसे खाते हैं । अतएव किसी वस्तु का प्रिय और अप्रिय होना मनकी मान्यतापर ही निर्भर है एसा सिद्ध होता है और बहुधा तो इसके ग्रहण करनेवाले व्यक्तिके मनके चलन विचलन स्वभावपर ही उसका आधार है । इसलिये नीतिकारका कहना है कि
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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