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________________ ५७२ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [प्रयोदश गया है । एक तो यतिवर्ग विद्वान वर्ग है, उनके लिये इतना विवेचन ही यथोचित है । जो योग्य होनेपर भी रास्ते से हठ गये हैं उनको मार्गपर लाने के लिये इतने शब्द काफी है। जो संयमके रास्तेपर आये ही नहीं हैं वे भी इसमें रहे सुख तथा परिणामकी ओर लक्ष्य रख सके ऐसी योजना ग्रन्थकाने रखी है और उस योजनापर लक्ष्य रखकर ही विवेचन किया गया है । विवेचन पढ़नेपर इस वर्गके मनमें भय उत्पन्न हो जाता है और वह संयमके सन्मुख होते ही रुक जाता है ऐसा न होने देनेके लिये विशेषतया ध्यानमें रखा गया है; परन्तु चोथा वर्ग जो वक्र होकर अपने दुष्ट आचरणका बचाव करता है, संयमधारी होनेपर भी गृहस्थी से भी विशेषतया इन्द्रियों को स्वतंत्र छोड़ देते हैं और साधुके वेशमें भाजीविका ही चलाते हैं वे सामान्य उपदेशसे कभी भी नहीं सुधर सकते हैं । उन पर चाहे जितने वाक्प्रहार क्यों न किये जाय किन्तु वे सब व्यर्थ हैं । इनके लिये कही कही पर कठोर शब्दोंका प्रयोग किया गया है किन्तु उनसे यदि यह सचेत होकर सुधर सके तो ग्रन्थका उद्देश्य पूरा हो; फिर भी ग्रन्थकर्त्ताने अपने कर्तव्यपालन निमित्त उनके लिये अत्यन्त कठोर शब्दोंका प्रयोग नहीं किया है और विवेचनमें भी इस बात पर बहुधा लक्ष्य रखा गया है । इस जीवको ऐसा प्रतीत होता है कि मुनिमार्ग बहुत कठिन है । इसका यह कारण है कि जीवका अनादि अभ्यास इन्द्रियोंका सुख भोगना और मनको निरंकुश छोड़ देना हो गया है। प्रसंगके उपस्थित होनेपर यह जीव प्रमाद तथा कषाय करने से नहीं चूकता है । पर्वत पर चढ़ना कठिन है इसीप्रकार गुणस्थान प्राप्त करनेमें प्रबल पुरुषार्थकी आवश्यकता होती है । यह
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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