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________________ ५६६ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [प्रयोदश "ह यति! महान् गुरुकी प्राप्ति हुई है, घरवारको छोड़ा, तख प्रतिपादन करनेवाले ग्रन्थोंका अभ्यास किया और निर्वाह करने आदि चिन्ताओंका भार हट गया, फिर भी परभवके हितके लिये यत्न क्यों नहीं करता है ?" उपजाति. विवेचन-हे साधु ! तुमे सद्गुरुको प्राप्ति हुई है, तूने घरबार छोड़ दिये हैं, पैसे छोड़े, स्त्री छोड़ी और सबसे अधिक द्रव्यानुयोगकी फोलासोफीका तुझे ज्ञान मिला है, इसीप्रकार इन सबसे अधिक तेरी भरणपोषणको चिन्ता दूर हो गई है, तेरे व्यापार करनेकी, अर्जियें लिखनेको, दवा देनेको, नाम लिखनेकी, हिसाब करनेकी, खटपट करनेकी, राज्य चलानेकी ऐसी किसी भी प्रकारको चिन्ता नहीं रही है इसीप्रकार तेरे पुत्रपुत्रियोंके लालनपालनकी, पढ़ानेकी या विवाह करनेकी चिन्ता नहीं है, स्त्रीके लिये न गहने घड़वाने हैं न साडिये खरीदनी हैं, न घर बनवाने हैं न उनकी मरम्मत करानी है-ऐसी किसी भी प्रकारकी उपाधि नहीं है, फिर भी तू संसारमें-विषयकषायमें लीन रहता है यह तेरी महान् भूल है । संसारमें डूबनेके साधन-निमित्तोंको तूने दूर कर दिये हैं फिर भी संसारमें फँसता जाता है यह तेरे दीर्घदर्शीपनकी कमी है । तू यह सब कुछ जानता है फिर भी परभवका हित हो वैसा प्रयास क्यों नहीं करता है ? तू दोनो भवोंको बिगाड़ता है, अतएव विचार कर जाग्रत हो और कार्य सिद्धिके मार्गपर भाजा । संयमकी विराधना न करना, विराधितैः संयमसर्वयोगैः, पतिष्यतस्ते भवदुःखराशौ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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