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________________ ५६२ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [त्रयोदश __ श्रीउपमिति भवप्रपंचके पीठबंधमें कर्ता अपना चरित्र लिखते हैं, उसमें निष्पुण्यक नामक अपना रंक जीव गुरुके प्रसादसे साधुभावको प्राप्त होता है तब फिर अहंकार करके किस प्रकार अधःपतनको प्राप्त होता है इसका स्पष्ट चित्र दिया गया है ( मूल पृष्ठ १४२, भाषांतर पृष्ठ १६५ देखें ) और वास्तविक हकीकत भी यही है। विषयकषायमिश्रित दंभसे चाहे जितनी धर्मकरणी क्यों न की जावे परन्तु उसमें लाभ कुछ भी नहीं है। इससे पुण्यबंध होता है तो वह भी संसार है। अतएव पौद्गलिक फलकी अपेक्षा न रखकर शुद्ध अध्यवसायसे धर्मक्रिया करनी चाहिये । अभिमानसे तो यह जीव अनेक बार धनव्यय करता है, कार्य करता है, कष्ट भोगता है, और प्राणान्त उपसगोंको भी सहन करता है; परन्तु इसके आशय शुद्ध नहीं है जिससे वैसी फलप्राप्ति नहीं हो सकती है। चारित्रप्राप्ति-प्रमादत्याग. प्राप्यापि चारित्रमिदं दुरापं, स्वदोषजैर्यद्विषयप्रमादैः। भवाम्बुधौ धिक् पतितोऽसि भिक्षो!, हतोऽसि दुःखैस्तदनन्तकालम् ॥ ५१ ॥ " भत्यन्त कष्टसे भी कठिनतासे प्राप्त होनेवाले चारित्रको ग्रहणकर अपने दोषसे उत्पन्न किये विषय और प्रमादके कारण हे मिनु ! तू संसारसमुद्रमें गिरता जाता है जिसके परिणाममें तुझे अनन्तकाल तक दुःख भोगना पड़ेगा।" उपजाति. विवेचन-ऊपरके श्लोकका भाव यहाँ प्रकट किया गया है । कर्मबन्धनद्वारा तेरे निजके उत्पन्न किये विषयप्रमाद आदि
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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